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मोटर की छीटे

मैंने आदमियो को अलग हट जाने का हुक्म दिया , मगर सभी को एक दिल्लगी मिल गई थी। किसी ने मेरी और ध्यान न दिया , लेकिन जब मैं डण्डा लेकर उनकी और दौड़ा, तब सब गाड़ी छोड़कर भागे और साहब ने आंखें बन्द करके बैठकें लगानी शुरू की।

मैंने दस बैठको के बाद मेम साहब से पूछा-कितनो बैठकें हुई?

मेम साहब ने रोष से जवाब दिया-हम नहीं गिनता।

'तो इस तरह साहब दिन-भर काँखते रहेगे और मैं न छोड़ूगा। अगर उनको कुशल से घर ले जाना चाहती हो, तो बैठकें गिन दो । मैं उनको रिहा कर दूंगा।'

साहब ने देखा कि धिना दण्ड भोगे जान न वचेगी, तो वैठकें लगाने लगे । 'एक, दो, तीन, चार, पांच ..।' .

सहसा एक दूसरी मोटर आती दिखाई दो । साहब ने देखा और नाक रगड़कर बोले-~-पण्डितजी, आप मेरा बाप है । मुझ पर दया करो, अब हम कभी मोटर पर न बैठेगे। मुझे भी दया आ गई। बोला-नही, मोटर पर बैठने से मैं नहीं रोकता, इतना ही कहता हूँ कि मोटर पर बैठकर भी आदमियो को आदमी समझो ।

दूसरी गाड़ी तेज चली आती थी। मैंने इशारा किया । सब आदमियों ने दो-दो पत्थर उठा लिये । उस गाड़ी का मालिक स्वय ड्राइव कर रहा था। गाड़ी धीमी करके , धीरे से सरक जाना चाहता था कि मैंने बढ़कर उसके दोनों कान पकड़े और खूब जोर से हिलाकर और दोनो गालों पर एक-एक पड़ाका देकर बोला---गाड़ी से छींटा न उङाया करो, समझे ? चुपके से चले जाओ।

यह महोदय वक-झक तो करते रहे , मगर एक सौ आदमियो को पत्थर लिये खड़ा देखा, तो विना कान-पूछ डुलाये चलते हुए।

उनके जाने के एक ही मिनट बाद दूसरी गाड़ी आई। मैंने ५० आदमियों को राह रोक लेने का हुक्म दिया। गाड़ी रुक गई , मैंने उन्हें भी चार पड़ाके देकर विदा क्यिा , मगर यह वेचारे भले आदमी थे। मज़े से चोटें खाकर चलते हुए।

सहसा एक आदमी ने कहा-पुलिस आ रही है।

और सब-के-सब हुर हो गये। मैं भी सड़क के नीचे उतर गया और एक गली मे धुमकर गायब हो गया।