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कैदी

जेलर ने कहा----यह नहीं हो सकता आइवन ! तुम सरकारी आदमियों को रिश्वत नहीं दे सकते।

आइवन साधु-भाव से हँसा--यह रिश्वत नहीं है मि॰ जेलर ! इन्हें रिश्वत देकर अब मुझे इनसे क्या लेना-देना है ? अब ये अप्रसन्न होकर मेरा क्या बिगाड़ लेंगे और प्रसन्न होकर मुझे क्या दे देंगे। यह उन कृपाओ का धन्यवाद है, जिनके विना चौदह साल तो क्या, मेरा यहाँ चौदह घटे रहना असह्य हो जाता।

जब वह जेल के फाटक से निकला, तो जेलर और सारे अन्य कर्मचारी उसके पीछे उसे मोटर तक पहुँचाने चले।

( २ )

पन्द्रह साल पहले आइवन मास्को के सम्पन्न और सम्भ्रान्त कुल का दीपक था।

उसने विद्यालय मे ऊँची शिक्षा पाई थी, खेल मे अभ्यास था, निर्भीक था, उदार और सहृदय था। दिल आईने की भाँति निर्मल, शील का पुतला, दुर्बलों की रक्षा के लिए जान पर खेलनेवाला, जिसकी हिम्मत संकट के सामने नगी तलवार हो जाती थी। उसके साथ हेलेन नाम की एक युवती पढती थी, जिसपर विद्यालय के सारे युवक प्राण देते थे। वह जितनी हो रूपवती थी, उतनी हो तेज़ थी, बड़ी कल्पनाशील पर अपने मनोभावो को ताले में बन्द रखनेवाली । आइवन मे क्या देखकर वह उसकी ओर आकर्षित हो गई, यह कहना कठिन है। दोनो मे लेश-मात्र भी सामजस्य न था । आइवन सैर और शराब का प्रेमी था, हेलेन कविता ओर सगीत और नृत्य पर जान देती थी। आइवन की निगाह में रुपये केवल इसलिए थे कि दोनो हाथो से उड़ाये जाय, हेलेन अत्यन्त कृपण । आइवन को लेक्चरर कारागार-सा लगता था । हेलेन इस सागर की मछली थी , पर कदाचित् यह विभिन्नता ही उनमें स्वाभाविक आकर्षण बन गई, जिसने अन्त में विकल प्रेम का रूप लिया। आइवन ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया और उसने स्वीकार कर लिया। ओर दोनों किसी शुभ मुहूर्त में पाणिग्रहण करके सोहागरात बिताने के लिए किसी पहाड़ी जगह में जाने के मसूबे बाँध रहे थे कि सहसा राजनैतिक सग्राम ने उन्हें अपनी ओर खींच लिया । हेलेन पहले से ही राष्ट्रवादियों की ओर झुकी हुई थी। आइवन भी उसी रंग में रंग उठा। खानदान का रईस था, उसके लिए प्रजा-पक्ष लेना एक महान् तपस्या थी, इसलिए जब कभी-कभी वह इस सग्रांम मे हताश हो जाता, तो हेलेन उसकी हिम्मत बंँधाती