से निकाल दोगी। घर तुम्हारा है ही। मुझे बुरा लगेगा ही, फिर यह मैत्री कैसे
निभेगी? .
दोनों कई मिनेट तक मौन रहे। प्रसाद ने परिस्थिति को इतने स्पष्ट, बेलाग, । लट्ठमार शब्दों में खोलकर रख दिया था कि कुछ कहने की जगह न मिलती थी।
आखिर प्रसाद ही को नुकता सूझा। बोला-जब तक हम दोनों यह प्रतिज्ञा न कर लें कि आज से मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरी हो, तब तक एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता।
'तुम यह प्रतिज्ञा करोगे?'
'पहले तुम बतलाओ।'
'मैं करूंगी।'
'तो मैं भी करूंगा।'
'मगर इस एक बात के सिवा मैं और सभी बातों में स्वतत्र रहूंँगी ।'
'और मैं भी इस एक बात के सिवा हर बात में स्वतंत्र रहुंँगा।'
'मंजूर।'
'मंजूर।'
'तो कबसे?
'जबसे तुम कहो।'
'मैं तो कहती हूँ, कल ही से।'
'तय है । लेकिन अगर तुमने इसके विरुद्ध आचरण किया तो ?'
'और तुमने किया तो?'
'तुम मुझे घर से निकाल सकती हो ; लेकिन मैं तुम्हें क्या सज़ा दूंगा ?'
'तुम मुझे त्याग देना, और क्या करोगे ?'
'जो नहीं, तब इतने से चित्त को शान्ति न मिलेगी। तब मैं चाहूंगा तुम्हे जलील करना ; बल्कि तुम्हारी हत्या करना ।'
'तुम बड़े निर्दयी हो प्रसाद ?'
'जब तक हम दोनों स्वाधीन है, हमें किसीको कुछ कहने का हक नहीं , लेकिन
एक बार प्रतिज्ञा में बँध जाने के बाद फिर न मैं उसकी अवज्ञा सह सकूँगा, न तम
सह सकोगी । तुम्हारे पास दण्ड का साधन है, मेरे पास नहीं है । कानून मुझे