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मिस पद्मा


भी अधिकार नहीं देता । मैं तो केवल अपने पशुबल से प्रतिज्ञा का पालन कराऊँगा और तुम्हारे इतने नौकरों के सामने मैं अकेला क्या कर सकूँगा।'

'तुम तो चित्र का श्याम पक्ष हो देखते हो। जब मैं तुम्हारी हो रही हूँ, तो यह मकान ओर नौकर-चाकर और जायदाद सब कुछ तुम्हारी है। हम-तुम दोनों जानते है कि ईर्ष्या से ज्यादा घृणित कोई सामाजिक पाप नहीं है। तुम्हे मुझसे प्रेम है या नहीं, मैं नहीं कह सकतो , लेकिन तुम्हारे लिए मैं सब कुछ सहने, सब कुछ करने को तैयार हूँ।'

'दिल से कहती हो पद्मा?'

'सच्चे दिल से ।

'मगर न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आ रहा है ?'

'मैं तो तुम्हारे ऊपर विश्वास कर रही हूँ।' ।

'यह समझ लो, मैं मेहमान बनकर तुम्हारे घर मे न रहूँगा। स्वामी बनकर रहूंँगा।'

'तुम घर के स्वामी ही नहीं, मेरे स्वामी बनकर रहो। मैं तुम्हारी स्वामिनी बनकर रहूंँगी।'

(२)

प्रो० प्रसाद और मिस पद्मा दोनो साथ रहते है और प्रसन्न हैं। दोनों हो ने जीवन का जो आदर्श मन में स्थिर कर लिया था, वह सत्य बन गया है। प्रसाद को केवल दो सौ रुपये वेतन मिलता है, मगर अब वह अपनी आमदनी का दुगुना भी खर्च कर दे, परवाह नहीं। पहले वह कभी-कभी शराब पीता था, अब रात-दिन शराब में मस्त रहता है। अब उसके लिए अलग अपनी कार है, अलग अपने नौकर है, तरह-तरह की बहुमूल्य चीजें मॅगवाता रहता है और पद्मा बड़े हर्ष से उसकी सारी फजूल-खर्चियाँ बर्दाश्त करती है। नहीं, बर्दाश्त करने का क्या प्रश्न है । वह खुद उसे अच्छे-अच्छे सूट पहनाकर, अच्छे-से-अच्छे ठाट में रखकर, प्रसन्न होती है। जैसी घंटों इस वक्त प्रो० प्रसाद के पास है, शहर के बड़े-से-बड़े रईस के पास न होगी और पद्मा जितनी हो उससे दवती है, प्रसाद उतना ही उसे दबाता है । कभी-कभी उसे नागवार भी लगता है , पर वह किसी अज्ञात कारण से अपने को उसके वश में पाती है। प्रसाद को ज़रा भी उदास या चिन्तित देखकर उसका मन चंचल हो जाता है। उस