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मानसरोवर


छिपा न था। प्रसाद को जैसे उसको सूरत से नफरत थी। पूर्ण गर्भ, पोला मुख, चिन्तित, सशक, उदास ; फिर भी वह प्रसाद को शृङ्गार और आभूषणों से बाँधने को चेष्टा से बाज न आती थी; मगर वह जितना हो प्रयास करती, उतना ही प्रसाद का मन उसकी ओर से फिरता था। इस अवस्था मे शृङ्गार उसे और भी भद्दा लगता।

प्रसव-वेदना हो रही थी। प्रसाद का पता नहीं। नर्स मौजूद थी, लेडी डाक्टर मौजूद थी, मगर प्रसाद का न रहना पद्मा की प्रसव-वेदना को और भी दारुण बना रहा था।

बालक को गोद में देखकर उसका कलेजा फूल उठा , मगर फिर प्रसाद को सामने न पाकर उसने बालक की ओर से मुंँह फेर लिया। मोठे फल मे जैसे कोड़े पड़ गये हों।

पांच दिन और-गृह में काटने के बाद जैसे पद्मा जेलखाने से निकली । नगी तलवार बनी हुई । माता बनकर वह अपने में एक अदभुत शक्ति का अनुभव कर रही थी।

उसने चपरासी को चेक देकर बैक भेजा। प्रसव-सम्बन्धी कई बिल अदा करने थे। चपरासी खाली हाथ लौट आया।

पद्मा ने पूछा- रुपये

'बैंक के बाबू ने कहा, रुपये सब प्रसाद बाबू निकाल ले गये।'

पद्मा को गोली लग गई। बीस हजार रुपये प्राणों की तरह सचित कर रखे थे, इसी शिशु के लिए। हाय ! सौर से निकलने पर मालूम हुआ, प्रसाद विद्यालय की एक चालिका को लेकर इंग्लैण्ड की सैर करने चले गये । झल्लाई हुई घर आई। प्रसाद की तस्वीर उठाकर जमीन पर पटक दी और उसे पैरों से कुचला, उसका जितना सामान था, उसे जमा करके दियासलाई लगा दी और उसके नाम पर थूक दिया !

एक महीना बीत गया था। पद्मा अपने बँगले के फाटक पर शिशु को गोद में लिये खड़ी थी। उसका क्रोध अब शोकमय निराशा बन चुका था। बालक पर कभी दया आती, कभी प्यार आता, कभी घृणा आती। उसने देखा, सडक पर एक यूरो- पियन लेडी अपने पति के साथ अपने बालक को बच्चों की गाड़ी में बिठाये लिये चली जा रही थी। उसने हसरत भरी आँखों से खुशनसीब जोड़े को देखा और उसकी आँखें सजल हो गई।

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