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विद्रोही

आज दस साल से जब्त कर रहा हूँ। अपने इस नन्हें-से हृदय में अग्नि का दहकता हुआ कुण्ड छिपाये बैठा हूँ। संसार मे कहीं शांति होगी, कहीं सैर-तमाशे होंगे, कहीं मनोरजन की वस्तुएं होंगी , मेरे लिए तो अब यही अग्निराशि है, और कुछ नहीं। जीवन को सारी अभिलाषाएँ इसी में जलकर राख हो गई । जिससे अपनी मनोव्यथा कहूँ ? फायदा ही क्या । जिसके भाग्य मे रुदन--अनन्त रुदन हो, उसका मर जाना ही अच्छा।

मैंने पहली बार तारा को उस वक्त देखा, जब मेरी उम्र दस साल की थी। मेरे पिता आगरे के एक अच्छे डाक्टर थे। लखनऊ में मेरे एक चचा रहते थे। उन्होंने वकालत में काफी धन कमाया था। में उन दिनों चचा ही के साथ रहता था। चचा के कोई सन्तान न थी, इसलिए मे ही उनका वारिस था। चचा और चचो दोनों मुझे अपना पुन समझते थे। मेरी माता बचपन ही में सिधार चुकी थीं। मातृ-स्नेह का जो कुछ प्रसाद मुझे मिला, वह चचीजी ही की भिक्षा थी। वही भिक्षा मेरे उस मातृ-प्रेम से वंचित बालपन को सारी विभूति थी।

चचा साहब के पड़ोस में हमारी विरादरी के एक बाबू साहब और रहते थे। वह रेलवे विभाग में किसी अच्छे ओहदे पर थे। दो-ढाई सौ रुपये पाते थे। नाम था विमलचन्द्र । तारा उन्हींकी पुत्री थी। उस वक्त उनकी उम्र पांच साल की होगी। बचपन का वह दिन आज भी आंखों के मामने है, जब तारा एक फ्राक पहने, बालों मे एक गुलाब का फूल गूँथे हुए मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। कह नहीं सकता, क्यों में उसे देखकर कुछ झेंप-सा गया। मुझे वह देव-कन्या-सी मालूम हुई, जो उषाकाल के सौरभ और विकास से रंजित आकाश से उतर आई हो।

उस दिन से तारा अक्सर मेरे घर आती। उसके घर में खेलने की जगह न थी। चचा साहब के घर के सामने लबा-चौड़ा मैदान था। वहीं वह खेला करती।