पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९६
मानसरोवर


धीरे-धीरे मैं भी उससे मायूस हो गया। मैं जब स्कूल से लौटता, तो तारा दौड़कर मेरे हाथों से किताबों का बस्ता ले लेती। जब मै स्कूल जाने के लिए गाड़ी पर बैठता, तो वह भी आकर मेरे साथ बैठ जाती। एक दिन उसके सामने चची ने चचाजी से कहा- तारा को मैं अपनी बहू बनाऊँगो । क्यो कृष्णा, तू तारा से ब्याह करेगा ? मैं मारे शर्म के बाहर भाग गया ; लेकिन तारा वहीं खड़ी रही, मानो चची ने उसे मिठाई लेने को बुलाया हो । उस दिन से चचा और चची में अक्सर यह चर्चा होती- कभी सलाह के ढङ्ग से, कभी मजाक के ढङ्ग से । उस अवसर पर मै तो शरमाकर बाहर भाग जाता था ; पर तारा खुश होती थी । दोनो परिवारो मे इतना घरांव था कि इस सम्बन्ध का हो जाना कोई असाधारण बात न थी । तारा के माता-पिता को तो इसका पूरा विश्वास था कि तारा से मेरा विवाह होगा । मै जब उनके घर जाता, तो मेरी बड़ी आवभगत होती । तारा की माँ उसे मेरे साथ छोडकर किसी वहाने से टल जाती थी। किसीको अब इसमे शक न था कि तारा ही मेरी हृदयेश्वरी होगी।

एक दिन उस सरला ने मिट्टी का एक घरौंदा बनाया । मेरे मकान के सामने नीम का पेड़ था । उसी की छाँह मे वह घरौदा तैयार हुआ। उसमे कई ज़रा-जरा-से कमरे थे, कई मिट्टी के बरतन, एक नन्ही-सी चारपाई थी। मैंने जाकर देखा, तो तारा घरौदा बनाने में तन्मय हो रही थी। मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पास आई और बोली-कृष्णा, चलो. हमारा घर देखो, मेंने अभी बनाया है। घरौदा देखा तो हँसकर बोला-इसमे कौन रहेगा तारा ?

तारा ने ऐसा मुह बनाया, मानो यह व्यर्थ का प्रश्न था । बोली----क्यों, हम और तुम कहाँ रहेगे ? जब हमारा-तुम्हारा विवाह हो जायगा, तो हम लोग इसी घर में आकर रहेगे। यह देखो, तुम्हारी बैठक है, तुम यहीं बैठकर पढोगे। दूसरा कमरा मेरा है, इसमें बैठकर मैं गुड़िया खेलूंँगी।

मैंने हंसी करके कहा-क्यों, क्या मैं सारी उम्र पढता ही रहूंँगा और तुम हमेशा गुड़िया खेलती रहोगी ? |

तारा ने मेरी तरफ इस ढङ्ग से देखा, जैसे मेरी बात नहीं समझी। पगली जानती थी कि जिन्दगी खेलने और हंसने ही के लिए है । यह न जानती थी कि एक दिन हवा का एक झोंका आयेगा और इस घरौदे को उड़ा ले जायगा । इसी के साथ हम दोनों भी कहीं-से-कहीं जा उड़ेंगे।