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मिश्रबंधु-विनोंद

६४ मिश्रबंधु- विद सकुचे । सारांश यह कि बात-बात में संस्कृत की बारीकियों से हिंदी में ला घसीटना ठीक नहीं है। हम स्वीकार करते हैं कि ऐसी दशा में हमारी भाषा में कुछ अनस्थिरता" अवश्य रहेगी, पर हमें उसी की ज़रूरत है। हम विशेष स्थिरता चाहते ही नहीं । कुछ अस्थिरता हमें हिंदी के लिये, श्रावश्यक प्रतीत होती है, क्योंकि नूतन विचारों को व्यक्त करने के लिये भाषा का दिनदिन विकास होना ही ठोझ है। संधि (३) संधि के झगड़ों से भी हिंदी को पाक रखना ही उचित है। हमारा मतलब यह है कि शब्दों को चाहे एक में मिलाकर लिखा जाय, चाहे अलग-अलग, और उनके किसी अक्षर में संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार चाहे परिवर्तन किया आय या नहीं । यथा, यज्ञोपवीत या यह उपचीत; श्रीमत् अकराचार्य या श्रीमच्छंकराचार्य, बृहत् अंश या बृहदैश, जगत् महम या जगन्मोहन जगत् आधार या जगदाधार इत्यादि । इन दो-दों रूपों में से हिंदी में कोई भी लिखा आ सकता हैं । . । विभक्ति-प्रत्यय (४) विभक्रि-प्रत्यय का विवाद कुछ दिनों से हिंदी में छिड़ पड़ा है। अधिकांश लोगों का मत यही है कि हिंदों में विभक्रि- त्यय होते ही नहीं, बरन उनके और ने, कों, से ( अर्थात् के द्वारा)

  • के लिये, है ( जुदाई का चिह्न), का ( की, के ), में १६, पर ),

इत्यादि कारक ( Postpositions ) से काम चलाया जाता है, पर कुछ विद्वान् अब तक यही झगड़तें आते हैं कि थे कारक विभक्रि-प्रत्यय-मात्र हैं और इन्हें अपने मुख्य शब्द ( संज्ञा अथवा सर्वनाम ) में मिलाकर लिखना चाहिए, न वि स्वच्छ द शब्दों की भाँति अलग करके । यथा “राम ने रावण को मारा" ! इसे उक्त