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मिश्रबंधु-विनोंद

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मिश्रबंधु विनोद नहीं। इस उदाहरण में यदि कारकों को मूल-शब्दों में मिलाकर लिखें, तो जिन दो-दो शब्दों को छोटे टाइप में छापा है, उन्हें एकसाथ उलटे कामाओं में बंद करके * को को" और "रावण के" लिखना पड़ेगा, ओ उपहासास्पद है, क्योंकि इस "को को" में पहला "को" उद्धृत किए हुए शब्द में से आता है और दूसरा हम अपनी ओर से जोड़ रहे हैं ! इतना ही नहीं, बरन् अतिम "को को" जो यहाँ उद्धृत किया गया है, उसके साथ “मैं भी उलटे कामाओं में रखना पड़ेगा, अर्थात् कोई कारक शब्द जै बार उद्धृत करना पड़ेगा, प्रायः उतने ही अन्य कारक-शब्द उसके साथ उलटे कामाओं में घुसते चले जायेंगे ! इसमें तो पूरी वही कहावत ठहरेगी कि "प्राधा पाँव मेरा, प्राधा मेरी बधिया का" ! ऐसी दशा में कारक-शब्दों को अलग ही लिखना उचित प्रतीत होता है। क्योंकि प्रयोजन केवल मूल शब्द को उद्धृत करने का है, न कि कारक को । लिंग-भेद हिंदी में सबसे बड़ा झगड़ा लिंग-भेद का है। प्रायः अन्य सभी भाषाओं में नपुंसकलिंग एवं त्रिलिंग भी हुआ करते हैं, पर हिंदी में निर्जीव पदार्थ भी पुंलिंग अथवा स्त्रीलिंग ही के अंतर्गत - माने गए हैं । अतः प्रत्येक ऐसे पदार्थ को इन दो में से किसी एक में मान लेना होता है। इसके कोई भी स्थिर नियम नहीं हैं, केवल योलचाल और महाविर के अनुसार इस पर काररवाई की जाती है। यही कारण है कि अँगरेज़ों एवं अन्य विदेशियों को हिंदी . सिखाने में सबसे अधिक उलझन लिंग-भेद में ही पड़ती है और प्रायः आमम्म उन्हें इस बाधा से छुटकारा नहीं मिलता । इतना ही नहीं, परन् हमारे यहाँ के वे समालोचक, जो ईर्षा-द्वेष-वश आलोच्य लेख एवं लेखक का खंडन करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं, हिंदी में प्रसिद्ध लेखकों तक की ऐसी ही "भूलें" खोज निकालने के लिये