पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१०५

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भूमिका और सर्वनाम के अतिरिक्त क्रिया, विशेषण और क्रिया-विशेषणों तक में उसकी सत्ता हो गई है। संज्ञा, सर्वनाम और क्रिया पर उसका अधिकार निर्विवाद ही है, पर विशेष एवं क्रिया-विशेषज्ञों का भी लोग पिंड छोड़ना नहीं चाहते। इस पर अभी लिंग-भेद का हर ठौर पूर्ण साम्राज्य नहीं जमने पाया है, पर शोक का विषय है कि बाल की खाल निकालनेवाले लेखकों एवं समाडोंचकों का मुकाव स्पष्ट रूप से इसी और है कि ये भी बचने न पावें । हमारी समझ में इन अनावश्यक बारीकियों को हिंदी में स्थिर कर देना एवं उनका नए सिरे से संचार करना बड़ा ही हानिकारक है और विज्ञ पुरुषों को इसका विरोध करना ही परम धर्म समझना चाहिए। अभी तक प्रचलित दरा यह है कि अच्छा, कच्छी, बड़ा, बड़ी आदि के हिंदी के विशेषणों में लिंगभेद माना गाता है, परंतु संस्कृत शब्दवाल विशेषणों में शेला नहीं किया जाता है । 'उनकी भाश बड़ी मधुर और सरल है' में कोई मधुरा और सरला नहीं कहता । यही ढंबा स्थिर रहना चाहिए । हिंदी की स्वतंत्रता इन सब बातों के अतिरिक्त इस मामले में एक भारी सिद्धांत का प्रश्न उठता है, अर्थात् हिंदी कोई स्वतंत्र-माषा है या नहीं ? जो दोग दात-बात में संस्कृत के नियों का सहारा हिंदी लिखने में भी हढते है। हमारी समझ में हिंदी के अस्तित्व से भी इनकार करनेवालों में है और उनको हम हिंदी के प्रचंड शत्र समझते हैं। उनका हिंदी से अति शीघ्र संबंध छूट जाना ही हमारी देशभाषा के लिये मंगलकारी है। प्रत्येक भाषा के लिये स्वतंत्रता एक परमावश्यक गुण है 1. प्राचीन काल में प्राकृत संस्कृत भाषा की परवा न करके अजउत्त (आर्यपुत्र), नियोश्र (नियोग), विश्र (इव), पत्त (पन्न ), संकप्प ( संकल्प), पदास (प्रदान ) श्रादि अपने ही रूपों में शब्दों का प्रयोग करती रही। धीरे-धीरे