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मिश्रबंधु-विनोंद

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मिश्रबंधु-विनोद है यह कुलीनता तेरा वैभव री पाथिन बलधाम ; गुणवानों को भी नीच बनाना है. बस तेरा काम : रावरी कृपा की कोर लाहकै कछूक गहि , . गरब गंभीर पाप-पुंजन कमायों मैं : देसन को जून करि सत गुन दूरि करि , र बनि केवल कुगुन अपनायों मैं। .. सबको समान सतकार के उदार हक , अा उपकार मैं कबौ न मन लायों में आस्त है भारत पुकारत है नाथ श्रब , .. . . . पाहि पाहि रावरी सरन तकि प्रायों मैं होतो जो न पातको सुगुन गन घातक तौ , . . . बार-बार काहे । दीनताई दरसावतो हाय-हाय करि काहे बालक-समान तजि , उसक बुढ़ापे की न लाज उर लावतो। गुरु गुन गन बल देखन मैं धाक बाँधि, . . रहिकै प्रतापी क्यों न आनंद बढ़ावतो; देव-सम राजतो चिराजतो प्रभा सो भरि , ... तुम्हें क्यों न ऐंठ सो अँगूठा दिखरावतो ३६ होकर परम उदास पुत्र मत चख जल ढारों; उस करुनानिधि-शोर भक्ति से समद निहारों। काल चक्र यह महाप्रबल फिरता ही रहता ..... कोई देस न सदा गैल गरिमा की गहता । काल-चक्र को किंतु एक-सी गति नहिं रहती . . ... दामन अवनति भी न सदा को हठ कर गहती। उस दयालु ने तुम्हें दिए सत्तगुनः बहुतेरे .. .. उनको बरधित करो कुगुन. लाबो मत ने । .