पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१३५

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- संक्षिप्त इतिहास प्रमाण हुआ था श्रीर १९६० के पीछे उनको अमृतमयी शिक्षा कर प्रसाद हिंदी पर पड़ने लगा जैसा कि प्राने विशेष रूप से लिया जायगा। नवीन्द्रना एक भारी बल है। यह जिस और बस जाती है, कुछ कर दिलाती है। हिंदी के माय से वल्लभाचार्य ही का नहीं, दान वैपरसवों को प्रायः सभी संप्रदायों का समान हरिभजन करने में उसकी ओर हो गया। फिर क्या था! इन सभी महात्माओं ने स्वयं हिंदी में इरियश गायर और इनके शियमरण एकदम दाही कारण भजनानंद में निमग्न हो गर, माता भक्ति और कविता का स्रोत ही हिंदी में फूट निकला और उसके द्वारा दम हर प्रेम-पोधि की কী ৪ সুর ক গান টি । संवत् १९६० से हो महात्मा सूरदासजओ का कविता-कास्य प्रारंभ होता है। इनकी भाषा को यद्यपि हम लोगों ने साध्यमिक माना है, तथापि कई अंशों में वह वर्तमान हिंदी से प्रायः पूर्ण रीति से मिलतीजुलती हुई है। सभी भाषाओं का विकास श्रीरे-धीरे ही होता है और इसमें संदेह नहीं कि और-काल की हिंदी के सामने भृपय और देव कालकाली एवं वर्तमान भाशा अधिक परिपक्क है, पर इससे यह न समझना चाहिए कि स्वयं सूरदास, तुलसीदास अथवा देव की भाया से इस समय के लेखका श्रेष्ठतर भाप डिवते हैं। ऐसा कदाधि नहीं है। ये महात्मा हिंदी के प्राय और नायक बिस प्रकार का माधुर्य इनकी कहावतों में है, वह अन्य लोगों को कहाँ नसीब हो सकता है, पर समयानुसार भाषा की उन्नति होनी स्वाभाविक ही है। सरदासजी में थोड़े ही ग्रंथ बनाए है, परंतु केवल सूरसागर इतना भारी है कि अन्य ऋविवों के पचास-पचास सौसौ ग्रंथ उसकी बरावरी नहीं कर सकते, यहाँ तक कि सरजी की वाणी सका लक्ष प्रसिद्ध है, यद्यपि इस समय उनके केवल चार