पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
११०
मिश्रबंधु-विनोद



मिश्रर्बधु-विनोंद शृंगार एवं विविध विषयों में कुछ-कुछ श्रा गया । इस प्रखाली ने भूपण और देव-काल में बहुत बड़ी उन्नति पाई। शृंगार-कविता भक्ति पक्ष को बिलकुल छोड़कर नितांत शृंगार की ही रह गई और विविध विषयों में युद्धों के साथ वीर, रौद् और भयानक-रसों का भी अच्छा वर्णन होने लगा। वीर मनुष्यों के कुछ छंदोबद्ध जीवन-चरित्र भी कहे गए और हिंदी कविता ने अनेक विषयों में अच्छा चमत्कार दिखाया। परंतु फिर भी उन विषयों की सीमा बहुत संकुचित रही और सांसारिक उमति की ओर हमारे लेखकों ने बहुत कम ध्यान दिया । अतः जैसी उन्नति इस समय तक अंग्रेजी-विधा ने नाना भाँति के उपकारी विषयों द्वारा कर ली थी, उसका हमारे यहाँ कहीं पता तक न था । कला-कौशल, विज्ञान, रसायन, अर्थ-शास्त्र, इतिहास, जीवन-चरित्र, समालोचना, पुरातत्व इत्यादि शाखाओं में अब तक हमारा साहित्य प्रायः एकदम शून्य था । अवश्य ही अब इनकी ओर कुछ-कुछ प्रवृत्ति होने लगी है, पर अभी इन अंगों को कुछ भी पुष्टि नहीं हुई है। बीसबों शताब्दी में होते हुए भी इन बातों में योरप के देखते हम लोग प्रायः सोजहवीं सदी में ही पड़े हैं। अस्तु । यह समय १६८१ से १७६० पर्यत चलता है। इसे हमने भूषणदेव-काल कहा है। इसके पाँच उपविभाग हो सकते हैं, अर्थात सेनापति-काजा( १७०६ तक ) बिहारी-काल (१७२० तक), भूषणकाल ( १७५० तक), आदिम देव-काल ( १७०० तक) और माध्य. मिक देव-काल ( १७९० तक) सेनापति काल • सैनापति-काल में (१६८३-१७०६) ध्रुवदास, चतुर्भुंजदास, व्यासजी, सदानंद, तोष, चिंतामणि, मलूकदास, कवींद्राचार्य, माधुरीवास, सुंदर ब्राह्मणा, पोहकर, कोयती, बेनी, बनवारी, नीमकल, महाराजा असतसिह, ताज, सिरोमणि आदि भारी कवि थे।