पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१४९

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संक्षिप्त इतिहास-प्रकार सरहरिदास ने अच्छे विषयों पर कोच रचना की और अपनाय ने धुंदेलखंड में धामिया अपंथ चलाया, जिसमें हिंदु-मुसलमान-मतों का मिश्रण है । अब बारमयों की जाति हो पृथक् सो हो गई है। प्रासनाथजी की कविता भी साधारणतया अच्छी है । मतिराम में कई मंथ रचे । इनकी भाप बड़ी ही अनाद-पूर्व और अति-मथुर। देव को छोड़कर सब कवियों से वह श्रेष्टनर है और उसका प्रसत्र कवियों पर बहुत पड़ा है। इनके भाव भी बड़े ऊँचे गंभीर है। मतिराम से श्रृंगार और वीर दोनों रसोई में मनोमोहिनी ऋविता की है। माधुर्य तो मानो इस कवि के बारे ही पड़ा है और इसके कई कवित से अड़िया बन पड़े हैं कि देव को छोड़ और किसी भी कवि की रचना में से समस्त हिंदी-साहित्य खोज डालने पर भी कैसे छंद नहीं मिल सकते । यह महाकवि उन महानुभावों में से है कि जिनकी रचनात्रा के कारण हिंदी साहित्य र सिर संसार में ऊँचा है और सदा रहेगा। हिंदी में चाहे और कुछ भी न हो, पर अब्द तक मतिराम-जैसे सत्कचियों की कविता इसमें स्थिर है, तब तक उसम कोई भी तिरस्कार नहीं कर सकता । इनकी गणना नामी प्राचार्यों में है और हमने हिंटी-नवरल में इनको श्रादर के साथ स्थान दिया है। भीष्म कचि में भागवत-दशम स्कंध के पूर्वार्द का बढ़िया हुदा में सारांश कहा और दामोदर दास ने मार्कडेयपुराम का राजपत्तानी साथ में उक्या किया। मंडन मिश्र की ऋदिता भी प्रशंसनीय है। सबमसिंह चौहान ने १७१८ से १७८ पर्यंत महामारत की कथा सविस्तर दोहा-चौपाइयों में लिखी। सरसदाल और अन्नन्य शीलमणि इस समय के भक्त कवि थे। इस काल में समझ और अनुप्रास का बल और भी बढ़ा और माण की अच्छी अंग-युष्टि हुई । भूषण-काल भूषस काल ( १७२१-१७५० ) में कुलपति मिश्र, सुखदेव