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मिश्रबंधु-विनोद

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         मिश्रबंधु-विनोद 

वीर एवं श्रृंगार दोनों ही रसों की सानुप्रास, भाव-पूर्ण एवं उत्कृष्ट कविता की है । नेवाज (संवत् १७३७) ने शकुंतला-नाटक भाषा में कहा है और संयोग-श्रृंगार में जैसी चटकीली रचना इसने की है, वैसी हिंदी-साहित्य-भर में कठिनता से मिल सकेगी । यह बढ़ा ही रसिया कवि था । वृंद (१७४२) ने नीति के दोहे अच्छे कहे और वाल अली ने सखी-भाव से भक्ति-पक्ष की कविता की ।

            देव
 महाकवि देवदत्त उपनाम देव का जन्म १७३० में हुआ था और केवल पोदश वर्ष की बाल्यावस्था में इन्होंने अष्टयाम और भावविलास -जैसे उत्तम ग्रंथ रच डाले थे, पर इनका वास्तविक कविता काल १७५१ से माना गया है और वह १७२५ तक चला । इस भारी काल के तीन उपविभाग हैं, जिनमें से केवल दो की गणना पूर्वालंकृत हिंदी के अंतर्गत होती है, अर्थात् आदिम देव-काल (१७५१-७०) और माध्यमिक देव-काल (१७७१-६०)। 
 आदिम देव-काल (१७५-१७०) के नामी कवियों में छत्र, वैताल, लाल, प्रियादास, गुरु गोविंदसिंह, चंद, कवींद्र, श्रीधर, सूरति मिश्र और महाराजा अजीतसिंह हैं।
 जैसे संस्कृत में कालिदास कविता में प्रायः सबसे बड़े माने जाते हैं, वैसे ही हिंदी साहित्य में महाकवि देव का जोड़ खोजना कठिन काम है । महात्मा तुलसीदास और सूरदास की उपमा सूर्य और चंद्र से दी गई है, पर अनेक हिंदी-नर्मज्ञों का यह मत है कि ऐसी दशा में देवजी को नभमंडल मानना पड़ेगा कि जिसमें सूर्य, चंद्र और तारागण उदय और अन्त होते एवं इधर-उधर परिभ्रमण किया करते हैं, पर जिसका कहीं ओर छोर ही नहीं मिलता। उन लोगों का विचार है कि तुलसीदास और सूरदास महात्मा अवश्य बड़े थे, पर कविता-मार्ग में वे देवजी के पीछे ही रह जाते हैं ।