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       संक्षिप्त इतिहास-प्रकरण    ११७

हम लोग यद्यपि इस मत के माननेवालों में नहीं हैं, तथापि हम यह भी नहीं कह सकते कि देवीजी की कविता इन महात्माओं की रचनाओं से न्यून है। वास्तव में इन तीनों महापुरुषों की कविता में अलग-अलग कुछ ऐसे विशेष गुण हैं कि इनमें से किसी को घटा-बढ़ाकर कहना कभी मतभेद से खाली नहीं हो सकता । यह त्रिमूर्ति सचमुच ही धन्य है और इसी के बाहु-बल से हिंदी-साहित्य का पाया इतना ऊँचा है। हम दृढ़ता-पूर्वक कह सकते हैं कि ममता-भाव को यथाशक्ति पूर्ण रीति पर हटाकर एवं पक्षपात-रहित होकर हमने भली भाँति विचार करने पर भी एसे तीन कवि किसी भी भाषा में नहीं देखे या सुने । यह सच है कि "क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरवा",अर्थात् हम लोगों की जानकारी हो कितनी कि जिसके विरते पर हम ऐसी अातंक-पूर्ण बातें करें,पर "निज पौरुष परमान ज्यों मशक उड़ाहिं अकाश" वाली कहावत के अनुसार यदि हम भी घृष्टता करके कुछ कहने का साहस करें, तो विद्वान् गण शायद हमारी अवहेलना न करेंगे । किसी-किसी भाषा में दो-एक परमोत्कृष्ट कवि पाए जाते हैं,पर ऐसे-ऐसे तीन-तीन कवि कहीं भी सवफ्न तक में नहीं हैं। देवजी ने ७२ या कम-से-कम ५२ ग्रंथ बनाए हैं, जिनमें से २६-२७ का पता लग चुका है और नित्य नए-नए ग्रंथ मिलते जाते हैं। इनकी कविता माधुर्य और प्रसाद-गुणों से परिपूर्ण है। उसमें काव्यांगों का भरपूर उत्कर्ष है और अनुभव कूट-कूटकर भरा है । सभी के दो ही अाँखें होती हैं, पर कवि कितना अधिक देख सकता है, इसे अनुभृत करने के लिये देव महाराज की कविता देखनी चाहिए। क्या मानुषीय प्रकृति, क्या अनेक प्रकार के भाव, क्या प्राकृतिक वर्णन और क्या भाषा को गंभीरता, मधुरता एवं परिपकता, सभी बातों में देव की प्रभा देखते ही बनती है,उसका वर्णन कर सकना दुस्तर है।