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मिश्रबंधु-विनोद

संपूर्ण प्रति भी मिल गई है। इन्होंने लालबिहारी को ईश्‍वर मानकर उसी की प्रशंसा में अपनी सब रचना की है, जो सर्वथा प्रशंसनीय तथा दर्शनीय है । महाराज नागरीदास (सावंतसिंह) कृष्णगढ़ के महाराज थे, परंतु वृंदावन और कविता के ये ऐसे प्रेमी थे कि राज्य छोड़कर भजनानंद और साहित्य-रचना में प्रवृत्त हुए । इन्होंने सौर-काल के ऋषि-कवियों की भाँति बड़ी ही भक्ति-पूर्ण रचना में कृष्ण भगवान् का श्रृंगारात्मक वर्णन किया । इनकी कविता तल्लीनता का पूरा परिचय देती है और वह प्रशंसनीय है। भूघरदास एक प्रसिद्ध जैन कवि थे । इन्होंने साधारण ग्रंथों के अतिरिक्त पुष्पपुराण-नामक एक जैनपुराण की भी रचना की, जो इस मत में बड़ी पूज्य दृष्टि से देखा जाता है। कुछ लोगों का कहना है कि कृष्ण कवि बिहारीलाल के पुत्र थे और इन्होंने अपने पिता की सत्तसई पर प्रति दोहे का भाव लेकर अच्छे सवैया-छंद बनाए। इनकी रचना प्रशंसनीय है। जोधराज ने प्राचीन भाषा में हम्मीररासा-नामक एक भारी और सराहनीय ग्रंथ रचा, जिसमें वर्णनों की पूर्णता का कुछ स्वाद मिलता है । गंजन कवि ने क्रमरुद्दीखाँ की प्रशंसा एवं श्रृंगार रस में बहुत अच्छे-अच्छे छंद कहे हैं। इनका ग्रंथ बहुत ललित है। उसमें अनुप्रास एवं सबल भावों की बहार है। महबूब ने भी ज़ोरदार कविता की और प्रीतम ने २२ छंदों में केवल खटमलों का हास्य पूर्ण वर्णन किया। हरिचरणदास एक सुकवि और भारी टीकाकार थे ।

            भाषा
 ऊपर जो कुछ लिखा गया है,उससे विदित होगा कि यह पूर्वालंकृत काल (१६८१-१७६०) हिंदी-भाषा के लिये कल्पतरू हो गया है। जितने सुकवि जिस अधिकता के साथ इस चामत्कारिक समय में हुए उतने और किसी भी काल में नहीं देख पड़ते । इसमें संदेह नहीं कि प्रौढ़ माध्यमिक हिंदीवाला अर्थात् सौर--तुलसी काल भी,