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संक्षिप्त इतिहास-प्रकरण


बड़ा ही विशद हुआ है, पर कहना ही पड़ता है कि यह हिंदी-काल कुल मिलाकर उसमें भी बढ़ा-चढ़ा हुआ है। उसमें चार कवि परमोत्तम हुए अर्थात् तुलसी, सूर, केशव और हितहरि- वंशा पर इस काल ने छः वैसे ही कवि उत्पन्न करके दिखला दिए, जिनमें देव, बिहारी, भूषण, मतिराम, सेनापति और लाल गिने गए हैं। उनमें तीन कवि नवरत्नोंवाले और एक प्रथम कक्षा के और इधर चार नवरत्नों के और दो प्रथम श्रेणी के वर्तमान हैं। इन निकलते हुए कवियों को छोड़कर दोनों कालों के शेष कवियों की ओर ध्यान देने से इनमें जो भेद है वह तत्काल ही प्रकट हो जायगा । दूसरे काल के हरिकेश, नेवाज, चिंतामणि, कुलपति, कविराज, शंभुनाथ, घनश्याम, नागरीदास, वैताल, घनानंद, श्रीपति, गंजन इत्यादि के सामने पहले (सौर-तुलसी) काल के तीन-चार कवियों से अधिक कदापि नहीं गिनाए जा सकते। कुल मिलाकर यह दूसरा काला हिंदी-साहित्य के लिये एकदम अद्वितीय है । ऐसी दशा में आशचर्य के साथ कहना पड़ता है कि कतिपय विद्वानों ने इसी समुज्ज्वल काल के एक वृहत् विभाग को दूसरी श्रेणी के कवियों और टीकाकारों का समय (the age of ind rate poets and commentators) बतलाया है ! जिस काल में देव की प्रायः समस्त रचनाएँ आ जायँ, और जिसमें भूषण, मतिराम, लाल, तथा ऊपर लिखे हुए अनेक अन्य कवि काव्य कर रहे हों, एवं पीछे से जिसको ठाकुर, बोधा, दूलह, सूदन इत्यादि अनेक कवियों ने अलंकृत किया हो, उसका यों अपमान करना किसी ज्ञाता पुरुष को शोभा नहीं देता। अस्तु। इस समय में भाषा की उन्नति प्रायः चरम सीमा पर पहुँच गई। दूषणों को न आने देकर, एवं भाव न बिगाड़कर कवियों ने भाषा को यथासंभव पूर्वतया अलंकृत कर दिया और उसमें सभी प्रकार से परिपक्वता आ गई । गद्य के कुछ लेखक अवश्य हुए,पर