पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१६५

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संक्षिप्त इतिहास-प्रकरण १२६ वर्तमान थे । वह छोटा-सा समय भाषा-साहित्य के लिए बड़े ही गौरव का था ।

        बेनी प्राचीन-काल
बेनी प्राचीन-काल (१८५६ मे १८७५) के प्रधान कवियों में राजा यशवंतसिंह तेंरवा, गणेश, क्षेमकरण, मंजन, करण, मून, लल्लूलाल, सदल मिश्र,गुरदीन पांडे, सुवंश शुक्ल, महाराजा मानसिंह, महाराजा सुदरदास, ललकदास, सागर, खुमान, धनीराम और महाराजा जैसिंह का नाम लिया जा सकता है।
बेनी प्राचीन (१८७४) लखनऊ-निवासी रामचंद्र के वायपेयी थे। इनकी रचना बड़ी सरस और सुहावनी है और भाषा में मिलित वर्ण बहुत कम आने पाए हैं। प्राकृतिक वर्णन भी इन्होंने अच्छे किए । इनकी रचना विशेषतया श्रृंगार-पूर्ण हैं । राजा जशवंतसिंह तेरवा-नरेश (१८५५) ने नायिका-भेद का अच्छा ग्रंथ बनाया । गणेश (१८५७) ने वाल्मीकीय रामायण के कुछ अंशो का अनुवाद किया । करण की कविता में काव्य-सामग्री प्रचुरता से मिलती हैं। लल्लूलाल (१८६०) ने खड़ी बोली और ब्रजभाषा मिश्रित गद्य में कई ग्रंथ रचे और सदल मिश्र ने (१८६०) शुद्धतर खड़ी बोली में नासकेतोपाख्यान की रचना की है । वर्तमान गद्य-प्रणाली की इन्हीं दोनों मे परिमार्जित तथा वर्णित किया था । सुवंश शुक्त  (१८६२) के कई बढ़िया ग्रंथ है । ललकदास नें (१८७०) सुत्योपाख्यान-नामक दौहा-चौपाइयों में रामकथा-विषयक एक सोहावना ग्रंथ रचा ।

जिसमें बालकांड की कथा बड़े विस्तार के साथ वर्णित हैं। सागर वाजपेयी (१८७०) रसमयी रचना की हैं। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिला, परंतु संग्रहों में इनके बहुत-से मनोरंजक छंद देखे जाते हैं। धनीराम (१८७०) प्रसिद्ध कवि सेवक के पिता थे । इनकी रचना मनोहर हैं । जैसिंह महाराजा रीवाँ