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मिश्रबंधु-विनोद

(१८७३) ने कई अच्छे ग्रंथ बनाए। इस समय से गद्य-काव्य के कुछ विशेषता होने लगी । जिस प्रकार देव-काल से दास-काल की कविता उत्तमता में कुछ घटती-सी रही, उसी तरह उसके पीछे भी क्रमश कवित्व-शक्ति का कुछ-कुछ ह्रास-सा होता चला आया है। यद्यपि गणना मे कविजन विशेषता से विद्यमान रहे और उनमें यत्र-तत्र अच्छे कवि भी देख पढ़ते हैं, तथापि अब कविता का वह पूर्ववाला मनोहर रूप नहीं दर्शित होता । रामचंद्र-काल इस कथन के बाहर है ।

         पद्माकर-काल

पद्माकर-काल (१८७६ से १८८६ तक) में वृंदावन, महराज, रामसहायदास, ग्वाल, चंद्रशेखर बाजपेयी, प्रेमसखी, प्रताप, श्रीधर, दीनदयालगिरि, महाराज बलवानसिंह, द्विज कवि, देवकीनंदन, गुरुदत्त शुक्ल और महंत युगुलानन्यशरण प्रधान कवि हुए हैं।

पद्माकर-काल का कविता-काल बहुत समय से चला आता है, परंतु कालक्रमानुसार हमने पद्मार को उनके अंतिम काल का नायक माना है। इस समय कई बड़े-बड़े कवि वर्तमान थे, परंतु पद्माकर की ख्याति सबसे अधिक थी। इन्होंने कई प्रकृष्ट ग्रंथ बनाए, जिनमें केवल  "अगद्विनोद” शृंगार-रस का है, परंतु इनकी रचना में यहीं सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसमें रसभेद तथा भावभेद का विस्तृत वर्णन साफ़ उदाहरणों द्वारा किया गया है । इनकी गांगालहरी तथा प्रबोधपचासा भी अच्छे हैं। पद्माकर ने अपनी रचना में शब्द चमत्कार लाने  का सबसे अधिक ध्यान रक्खा, परंतु भाव की ओर ताद्दश निगाह नहीं की । अँगरेज़ी के कवि सर वाल्टर स्काट से इनकी समानता की जा सकती है। इन दोनों कवियों ने बढ़ी उड़ती हुई भाषाओं में रचनाएँ की हैं। संयोग-वश दोनों की मौत भी एक ही संवत् में हुई है। पद्माकर ने शृंगार,वीर तथा भक्ति,इन तीनों विषयों पर मनोहर ग्रंथ रचे हैं। सर्वसाधारण भाषा-काव्य-प्रेमी इन्हें बड़े-बड़े कवियों का सम-