पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/१६७

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संक्षिप्त इतिहास-प्रकरण १३१ कक्ष समझते हैं। कविता के कारण पद्माकरजी का सदैव अच्छा सम्मान रहा और कविता में इनको कामधेनु का फल दिया । ये उत्कृष्ट कवि थे ।

वृंदावनी (१८७५) जैन-कवियों में अच्छे माने गए हैं । राम-सहाय ने (१८७०) दोहो में रामसतसई-नामक परमोत्तम शृंगार ग्रंथ रचा ।

इस सत्स कवि ने बिहारी के पैरों पर पैर रक्खें हैं और दो-तीन सौ दोहे तो एसे बढ़िया रचे हैं कि यदि वे बिहारी के दोहे याद न रखनें वाला उन्हे सायद पृथक् कर सके। इनकी रचना बढ़ी ही मधुर है । इन्होंने अन्य ग्रंथ भी बनाए हैं । ग्वाल (१८७६) ने बहुत-से बढ़िया ग्रंथो की रचना की,जो सरस, मधुर और प्रशंसनीय हैं । भाषा-चमत्कार पर इनका भी ध्यान विशेषतया रहता था । चंद्रशेखर बाजपेयी ने १८७७ से १६३२ पर्यत काव्य-रचना की । इन्होंने श्रृगांर रस के अच्छे छंद बनाए तथा हन्मीरछठ-नामक वीर-रस-प्रधान बहुत ही अनूठा एवं सबल ग्रंथ रचा । इनकी वीर-कविता में बल एवं उद्दंढता की मात्रा बहुत अधिक है । इन्होंने बड़ी सजीव तथा प्रथम श्रेणी की रचना की है । प्रतापसिंह (१८८२) की भाषा मतिराम की भाषा से बहुत मिल जाती है और उत्तम छंदों की संख्या भी इनकी सव्यंग्य-रचना में बहुत विशेष है। उसमें उद्दंडता भी पाई जाती है । ये काव्यांगो के एक अच्छे ज्ञाता थे । कुल मिलाकर प्रताप एक बड़ा ही प्रशंसनीय कवि है। बाबा दीनदयालगिरि (१८८८) भी काशी के सुकवि थे। इन्होंने अन्योक्रियाँ अच्छी कही हैं । काशिराज महाराजा बलवानसिंह (१८८६) ने चित्र-काव्य बहुत प्रशंसनीय लिखा है । इनकी पुस्तक में सात-सात अर्थ तक के छंद हैं, परंतु भाषा उनकी तनिक भी बिगड़ने नहीं पाई हैं । द्विज कवि मन्नालाल ने अच्छा संग्रह तैयार किया और गुरूदत्त शुक्ल ने पक्षियों-संबंधी अन्योक्ति-रचना प्रशंसनीय