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मिश्रबंधु-विनोंद

की । महंत युगुलानन्यशरण ने बहुत-से बड़े-बड़े तथा प्रशंसनीय ग्रंथ रचे । इनका श्रम सराहनीय तथा अनुकरणीय हैं ।

           विचार
पद्माकर से कुछ पहले कवियों की लेखनी कुछ मंद-सी पड़ गई थी, परंतु इस छोटे १५ साल के समय में बहुत-से श्रेष्ठ कवियों ने

कविता देवी को अपनी चमत्कृत रचना से अलंकृत किया जिसे देख-कर अात्मा हर्षित तथा प्रफुल्लित हो जाती है ।

यह उत्तरालंकृत काल एसे समय आरंभ हुआ, जब हिंदी की पूर्ण उन्नति हो चुकी थी और वह अच्छे प्रकार से अलंकृत भी थी । इन कारणों से उसके अधिकतर उन्नत होने का विशेषतया मौका नहीं था। फिर भी पद्माकर आदि कवियों नें उसके अधिकाधिक सुसज्जित करने का प्रयत्न नहीं छोड़ा, जिसका फल यह हुआ कि कवियों का ध्यान भाषा की ओर विशेषतया होने लगा और भाव की और कम।  यह बात पूर्व-काल में नहीं हुई थी । इस उत्तर-काल में प्रथम श्रेणी के ठाकुर आदि दो ही तीन कवि हुए, परंतु अन्य ऊँची श्रेणियों मे बहुत से कवि थे। इसमें नायिका-भेद, नखशिख, इत्यादि पर ग्रंथ लिखने में परिपाटी दृढ़ हो गई और आचार्यो की संख्या बहुत बढ़ी । उत्कृष्ट कवियों के होते हुए भी इस समय नवरत्न का एक भी कवि नहीं हुआ, सो अंतिम दोनों कालों की अपेक्षा यह समय कुछ फीका-सा जँचता है, यद्यपि नवरत्न और प्रथम श्रेणी को छोड़कर शेष श्रेणियों के कवि इसमें बहुत अधिकता से हुए । इस काल के आरंभ होने से थोड़े ही दिन पीछे भारत मे कादरता का सिक्का जमा, अतः वीर-काव्य इस समय पूर्वालंकृत काल से कम हुआ और विविध विषयों के वर्णनों की परिपाटी ने भी समुचित उन्नति नहीं पाई। सारांश यह कि जो अलौकिक उन्नति पूर्वालंकृत काल में प्रारंभ हुई थी, वह उत्तर-काल में विशेषतया