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संक्षिप्त इतिहास-प्रकरण १३३

घटी तो नही, परंतु आगे भी न बढ़ सकी । उत्तर-काल में भाषा संबंधी एक यह उकति अवश्य हुई कि खड़ी बोली के पद्य और गद्य दोनों का मान बढ़ा । रघुनाथ ने खढ़ी बोली पद्य का औरों की अपेक्षा कुछ विशेष व्यवहार किया । इसी प्रकार लल्लूजीलाल तथा सदल मिश्र ने गद्य की प्रथा ने बल पाया । हमने लिखा है कि देव-काल (संवत् १८००) के पीछे हिंदी-साहित्य में कुछ अवनतिसी होने लगी । यह उत्तरालंकृत हिंदी के समय (संवत् १८८६) तक,वरन् अबावधि बढ़ती ही गई, क्योकिं इस वृहत् समय में नवरत्नो में केवल एक महानुभाव की गणना हो सकी और प्रथम कक्षा के भी बहुत कवि नहीं हुए । पर इससे कोई यह न समझ बैटे कि तुलनावन्य भाव से न देखने पर भी हिंदी काव्य में कोई वास्तविक हीनता आ गई । बात यह है कि जहाँ हमारे साहित्य-भंडार में मतलबवाली कलाओं का प्रायः अभाव-सा है, वहाँ निस्संदेह कोरी कविता में (जिसे प्रसिद्ध अँगरेज़ी-लेखक जाँन लाक ने ठीक ही pleasant air barren soil, अर्थात् सुहावनी वायु परंतु ऊसरमय पृथ्वीवाली वस्तु कही हैं) हिंदी का सिर बहुत ऊँचा हैं । जैसे भारी और उत्तम महाकवि इसमें हो गए हैं, वैसे दूसरी भाषाओं में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते । अतः हिंदी- साहित्य में जो दूसरी कक्षा के भी कवि (2nd rate poets) हैं, उनकी समतावाले साहित्य-सेवी अन्य भाषाओं में बहुत नहीं मिल सकते । इस निगाह से देखने पर यद्यपि संवत् १८०२ (अर्थात् सन् १७६५ न कि पूरी १८ ईसवी शताब्दी) में हिंदी-साहित्य तुलसी, सुर, देव और बिहारी-जैसे धुरंधर कवियों को उत्पन्न नही कर सका और इस विचार से कहा जा सकता है कि उस काल में दूसरी कक्षा के ही कवि (2nd rate poets) हुए हैं, तथापि निरानुषंगिक भाव से यह कदापि नहीं कह सकते कि वास्तव में अन्य भाषाओं