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मिश्रबंधु-विनोंद


के सामने हिंदी का पद साहित्य-विभाग में इस समय दब गया । हम यह सब ममता-भाव से नहीं कहतें,वरन् भली भाँति विचारने के पश्‍चात् हमारी वही सम्मति दृढ़ता-पूर्वक स्थिर होती है।

         पाँचवाँ अध्याय

परिवर्तनकालिक हिंदी (,१८८६ सं० से १६२५ तक) अँगरेज़ी-राज्य का प्रभाव 'बेनी प्रवीन' के समय से हिंदी पर कुछ-कुछ पड़ने लगा था और प्रेस भी इसी समय मे भारत में स्थापित होने लगें थे, जिनमें भाषा को बहुत लाभ पहुँचा और पहुँच रहा हैं । उक्त राज्य की सहगामिनी शांति भी उसी के साथ आने लगी है । प्रेसों एवं शांति के प्रभाव उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए इस परिवर्तन-काल । में हिंदी के पूर्ण सहायक हुए । १६१४-१५ वाला सिपाही-विद्रोह पठित समाज से कुछ भी वास्ता नहीं रखता था और न उसको लेश-मान्न प्रभाव हिंदी-साहित्य पर पड़ा ।

 परिवर्तन-काल को हम दो उपविभागों में विभक्त करेंगे,अर्थात्त द्विजदेव-काल १८८६ से १६१५ तक,और दयानंद-काल १६१६ से

१६२५ तक ।

   महाराजा मानसिंह द्विजदेव-काल

इस काल (१८८६ से १६२५) तक में स्वयं द्विजदेव के अतिरिक्त, ललितकिशोरीजी, उमादास, जीवनलाल नागर, निहाल, देवकरष्टजिद्धा, नवीन, कृष्णानंद व्यास, गणेशप्रसाद फ्ररुख़ाबादी, माधव, क्रासिमशाह, गिरिधरदास, यजनेस, सेवक, महाराजा रघुराजसिंह, शंभुनाथ मिश्र, सरदार, बलदेवसिंह, पंडित प्राचीन, अनीस राजा शिवप्रसाद,गुलाबसिंह,बाबा रचुनाथदासरामसनेही और लेखराज प्रधान कवि और लेखक थे।