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संक्षिप्त इतिहास-प्रकरण

ललितकिशोरीजी का रचना-काल संवत् १६१३ से आरंभ होता है । इन्होने प्राचीन प्रथा की कविता सौर-काल के समान भक्ति-पूर्ण पदों में की,जो सर्वधा प्रशंसनीय हैं। इसका विषय भी प्राचीन काल की भाँति कृष्ण-भक्ति-सहित श्रृंगारात्मक है । वे महाराज लखनऊ वाले प्रसिद्ध साद्दजी के घराने के थे और इनका नाम साद्दकुदंनलाल भक्ति-भाव के कारण ये श्रीवृंदावन मे रहने लगे थे, जहाँ इन्होंने एक बढ़ा ही बढ़िया पधीकारी का मंदिर बनाया । इनके भाई ललितमाधुरीजी कविता तथा मंदिर-निर्माण मे इनके सामी थे ।

उमादास और जीवनलाल सागर ने बहुत-से ग्रंथ रचे । देवकाष्टजिहा (१८६७) की कविता भक्ति-भाव से पूर्ण होती थी । नवीन (१८६६) की रचना अनुप्रासों एवं अन्य ढंगो में पद्याकर से मिलती है और उत्तमता में भी उसी के समान है । कुष्णानंद व्यास (१६००) ने रागसागरोद्भव रागकस्दृम-नामक पदों का भारी संग्रह बनाकर मुद्रित कराया । इसमें व्रजमंडल तथा अन्य स्थानों के २०५ भक्तों की कविता संग्रहीत हैं। गणेश-प्रसाद फ्ररुख़ाबाद ने १६०० से १६३० पर्यंत कविता की । इसने खड़ी बोली में अनेकानेक विषय बहुत ही रोचकता तथा उत्तमता पूर्वक वर्णित किए है । इसकी भाषा बहुत ही अच्छी और कविता भाव-पूर्ण है । सर्वसाधारण ने इस कवित्व की रचना को बहुत पसंद किया और वह वास्तव में प्रशंसा योग्य है । गान-मंडलियों में इसकी कविता ख़ूब प्रचलित है । माधव (१६००) ने पद्मपुराण के अधार पर आदि रामायण-नामक एक बहुत बड़ा ग्रंथ सुपाख्य भाषा में रचा । कासिमशाह ने हंसववाहिर-नामक एक भारी प्रेम-कहानी जायसी की भाँति उन्हीं की भाषा में कही । यह जायसी की रचना से न्यून है । गिरिधरदास (१६००) भारतेंदुजी के पिता थे । इन्होंने ४० ग्रंथ