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मिश्रबंधु-विनोंद
 

लिये ग्रंथ लिखे थे, सो यद्यपि इन्होनें खड़ी बोली का प्रयोग किया, तथापि सनातन प्रथा का प्रभाव इनकी भाषा में ब्रजभाषा के मेल से देख पड़ता है । यह प्रभाव परिवर्तनकालिक गद्य से पूर्णतया उठ गया । कुछ दिन खिचड़ी भाषा के व्यवहार का प्रश्‍न हिंदी में रहा, जिसका तात्पर्य यह है कि उन्नत श्रेणी की हिंदी एकदम लोप होकर केवल उर्दू-मिश्रित साधारण बोलचाल की भाषा रह जाय । विद्वानों और अनपढ़ों की बोली में सदा ही सभी देशों में अंतर रहता है, सो हम लोगों को यह कैसे पसंद हो सकता है कि हमारे पढ़ें-लिखे लोग भी तुलसी, देव और बिहारी की रचनाओं समझे ही नहीं? भाषा सुगम अवश्य होनी चाहिए और बोलचाल में प्रचलित विदेशी एवं अन्य भाषाओं के शब्द उसमें ज़रूर रखने चाहिए, पर यह कद्यापि नहीं हो सकता कि हिंदी में साधु भाषा को एकदम तिलांबबि दे दी जाय । क्या यह संभव है कि विशुद्ध साधु अँगरेज़ी भाषा को छोड़कर अँगरेज़ लोग अपने में असाधु भाषा (colloquialism) की ही प्रचार रक्खें और उसी में नामी ग्रंथ, सामयिक पत्रादि लिखे जायें ? इन्हीं कारणों से खिचड़ी हिंदी न चल सकी, एवं हाल में ही संयुक्त-प्रांत के शिक्षा विभाग को भी ऐसा ही प्रयत्न सफल न हो सका ।

अब तक हमारी भाषा में रोचक, किंतु अनुपयोगी विष्यो की विशेषता रही थी, परंतु अब अँगरेज़ी राज्य के साथ संसारी लाभ-दायक बातों की ओर लोगों की प्रवृत्ति होने लगी । वास्तव में हम लोगों की इसी की अत्यंत आवश्यकता भी थी, सो अँगरेज़ी राज्य ने इस भाँति हमारा बड़ा उपकार किया है, जिसे हम लोगों को कभी न भूलना चाहिए । हिंदी-भाषा पर भी इस परिवर्तन-काल का  अच्छा प्रभाव पढा़ और उपयोगी विषयों पर रचनाएँ होने लगी । इसी के साथ कहना ही पढ़ता है की संंसारीपने की वृद्धि के साथ