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मिश्रबंधु-विनोंद

१५६ मिश्रबंविनोद गद्य की अच्छी उन्नति हुई । उन्होंने उसमें संस्कृत-शब्दों को कुछ प्रयोग बढ़ाकर उसकी छटा वर्द्धसान की, परंतु उनके पीछे लेख ने संस्कृत की मात्रा में बहुत अधिक बढ़ाया, जिससे भाव दिनोदिन गृढ़तर होती जाती हैं। संस्कृत-शब्दों के बहुव्यवहार के साथ-साथ उसे भाषा के नियम भी हिंदी में घुसने लगे हैं। इस विषय का कुछ सविस्तर वर्णन अन्यन्न किया गया हैं। भाषा के गृढ़ीकरण से उसमें पांडित्य-नृद्धि अवश्य होती है, परंतु उसी लोकप्रियता को धक्का लगता है। ऐसी कुछ बातों के होते हुए भी यह कहने का अञ्ज सहर्ष अवसर मिला है कि हिंदी में अच्छी उन्नति कर ली हैं और इसकी वृद्धि की उत्तरोत्तर अशा है । वर्तमान शद्य-लेखन-शैली का जन्स आ शिवप्रसाद के समय से मानना चाहिए। | पद्य-दिमाग { १) पूर्व प्रारंभिक हिंदी ( संवत् १००९-१३४३) " भुवाल कवि { सं० १००० ) सुमिरौं गुरु गोविंद के पाऊँ; अगम अपार है जाकर नाऊँ। कहूँ नामयुत अंतरामी : भगतभाव देहु गरुड़गामी ।। चंद छवि ( सं० १२२५-४६) हँस होत गति भंग मोर कटु सबई उचारै ; । रोचत क्रौंच कुरंग सुप छुडत आहारै।. . सुश्री अमन करे त निकुल कुर्कुट मित्राई ।। | ऐसे चरित करतः जानि आम दिनाई ।। चक्कोर परस्पर हित रहित छहतं चंद परिष जहि । । • तिहि काज आने इष्षत इनहिं भूपति मोअन साल महि। । । विधि-विध भाँति सुबल रच्दै । पूजा दैव समान सुसवै । । अति आनंद सेव सह सारं । त सुन्न अंग अयं परिह्मरे ।