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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्र-धुविनोद उदय केतु लश हित सही के ; कुंभकरन सम सोबत नीके। पर अकाज हमि तं परिहहीं ; जिमि हिम उपल कृषी दल गरहीं है, उदासीन अदि मत हित । हुनत अहि रीति ; जानु पनि जुग जोरि है , बिनती : * सुप्रीति ।।

खानखोला { १६४० }।

खैर, खून, खाँसी, खुसी , बैङ, प्रति, मधुपनि । रहिमन दादे ना दें , जानत सझल अहान । संप्रति संपतिवार को , अब ऊ बस्नु देत ; दोन बंधु बिच दीन की , ॐ रहीम सुधि लेत। अब रहोम मुसलियरी , गाढे दो काम ; साँचे से तौ अदा नहीं , झूठे मिलें न राम । | रखाः लंः १६४५) छटी लोक लाज गृह क्लाज मन मोहनी की , | मोहन को भूलि राय, मुरली बजाय ; अब राति दिन है मैं बात फैलि है , लजन कहाँ ल चंद हाथन ढुंग्य । काल्हि ही कलिंदी तीर चितर अचानक ही ,. . दुहुन की और दोंऊ मुरि मुसळायव । । दोऊ पपैयाँ दोऊ देत हैं बजैयाँ, | उन्हैं भूल गई गैयाँ इन्हैं शागरि उठायब ।। मोर पखा सिर ऊपर रखिकें गुंज. ॐ माल गरे पहिौंग , औढ़ि पितर लै लकुट बन गदत गोधन संग फिगर । सार्दै री तोहि कहा रसलानि स तेरे लिये सब स्त्राँग झगी , या मुरळी मुरलीधर की अंधरान धरी अधर में धरेंगी ।। ...... . केशवदास { १६४८) . सोभित न कर अवलं जतमई छबि उज्कल' छाई, ..