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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोद महाराजा जसवंतसिंह ( १६६५) मुख असि वा ससि अधिक, उदित ति दिन-रात ; सारार ते उपज म यह, कमला अपर सहाति । | सैनयति ( १७०६) वृष को तरनि तेज, सहस करनि ।। तदै ज्वालनि के जाल बिकाद्ध क्रसत है ? तपति धन जग झुरत झन सी , छाँह के परि पंथी पछी बिरमक्ष हैं। लेनागृति नेक दुपहरी ढरकते होत , धमका विषम । न त खरात ३, मेरे जान पौन सो ठौर को पकरि , | कौन घरी एक बैठ कहूँ धामै बितवत है। राजा शंभुनाथ सुलंकी (१७०७)। - क्रोहर कौल जपा दल ब्दुिस का , . | इतनी जु बैंधक मैं कति है। रोचन रोरी रेसे मेंहदी नृप शंभु , भने मुकता सम घोति है। १य धरै ढरै ईंगुई तिन मैं, खर पायल की घन ओति है। हाथ हैं तनिक चारि हू और ल , चाँद चूनरी के रँग होति है। | बिहारीलाल १ १७१०) दभ लाडो कालो जिसी, चटकाढी धुनि कीन् । रति एली आली अनत, आए बदमाल न ! मोर मुकुट कटि काछनी, कर मुरळी उर माह ? याई आकिम इन : बिहाखईछ ।. .