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मिश्रबंधु-विनोंद

लोक हर मुअरा म जहाँ कृत्रिं धा उहाँ उमरा न वहाँ की ज्ञान मिलें तो अहान मिलै ना जान मिले त अहान कहाँ ।। रामचंद्र { १८४१) म झकझोरन तें, मदन हिरन हैं, भारी भ्रम रन हैं कैसे थिर रहती : . दुख-दुभ-हरन हैं, पतिङ्क पहारन ते, डुमति झारन तें कैसे ॐ निवहती । अरर जंतु ओंकन के, चिंता अल ढोझन के, | रोग सौंक न के झक कैसे सहर्त ; हौदै हो न जु तेरे अनं करनधार, | मैया यह नैया मेरी कैसे पार लहती ।। मैं लैबोंदर संभुसुवन अंभोरुह लोचन ; अघिद्ध वंदन चंद्रभा वंदन संचं धन् । मुख मंडलं गंडालि गंड संडित श्रुति कुंडल हूँ दारक र बृद चरन बंदत अखंड छ । . . | बेनी प्रवीन १८७५) • जुन्यौ न मैं खितः अद्धि साहि क्षु सोक्त माहिं गई करि हासी । . ॐ इिये झुछ नहर के ससे, मैरी तङ नहिं नींद दिनासी । . मैं एई और बेनी अबीन अड़ाय वटी दुपटो रँग मासा ।। . लोई तुली हुन छोरि अभूषन भूख गई गल देन को फइस ३ । पृदुभाकर ( १८६) . | मकान मंजुद्ध मलिंद अतवारे मिले, मंद-मंद मरुत मुहीम मला की है। कई पदुमकर य सुदन स्दौन नित, मारि अब की नरें निसा की है।