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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोद ही न मानें, तो संसार में प्रायः कोई शरीर ही न र यह है : देसी दशा में बईः कहना पड़ेगा कि ऐसा माननेवाले का मत अशद्ध हैं। संसाः ॐ ॐाहील देह प्रायः लभ्य पदार्थ हैं, परंतु रोग के कारण र व शरीर हैं? न मानना दितत श्रममूलक है। बहुत कर ऊ यह दृशा पदोश् रचना की है। {२} अद्भुत वायहि ते जहाँ उपजत अद्भुत अर्थ : लोकोत्तर रचत रुचिर सो कहि काब्य समर्थ । • लाल पिता है कि इस वक्षणार नै उत्छु झारग्न का क्रथम किया है। न कि ऋग्य क; क्योंकि यह कहता है कि इस लक्षणयुक्ल अब्द को समर्थ कारख्या कहना चाहिए | समर्थ शब्द से उत्कृष्टता की हक्क दी हैं। अब्य-अक्षा के लिये अद्भुत वाक्य एवं अर्थ य न झाश्यक नहीं । प्रसाद, सुकुमरवा इदं अर्थब्यक्त सत्य के प्र बद्ध छु है । अस्य-गुण के लियें प्रसन्नता, सुंदर शब्दा तथा प्रसिद्ध शब्द झी अवश्यकता है, सुकुमार ॐ ढिके कैमल बाद मुटु अथै, सरह वचन, तथा जलत रचन की और अव्यङ्गिः ॐ भारी मारलतः एवं संदेह अर्थ की । के बाग्वा कोस्वामी तुलसीदास की रचना में बहुतायत से पट जले हैं, परंतु इनमें कई अद्भुतता नहीं है । एवजा इस उरुग्छ कर होना न्यू हाध्दा व्य के लिये आवश्यक है, न अस्कृष्ट व्य ||३रस्तयुत व्यंग्य प्रधान जहाँ शब्द् अर्थं शुचि हो । उक्लि युक्त भूषण सहित काव्ये कहावै सोय । ... इस. क्षार दे इल, यंग्छ मयं अलंकार ॐ काय के द्रिये साल है, जे बोला कि नहीं है। इसमें ऐसे अनुप रः झाब्द # * श्यौरा किया हैं, डीक अमहीन अर्थों का छ नहीकाते हैं। "हूँ' शब्द से ठीक झा नहीं होता क्लि