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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्र, विनोद | १ ४ } चायं रयात्मक व्यम् । | इस काव्य के लिये रस ही न केवल प्रधान, बश्न् ऋश्यक सममा यः है। इस काव्योत्झर्य के लिये आवश्यक है, परंतु चंद्रित ध न है कि जहीन रचना भी अदिती ही जा सकती है। चित्रकाव्य में बहु इस क र्छ श्रभाव होता हैं। इसी प्रकार बहुत से अलंकारयुक मत्कारिक छंदों में कोई इद् रस नहीं होता। दिलष्ट रूप से उनमें कोई रह स्थापित करना अनुक्क हैं। फिर सर्वत्र इस प्रकार भी प्रत्येक अच्छा रचनः तक मैं पर्छ र क न है, खुडित रस भी नहीं स्थापित क्रिया अ . सकेगा । होस वा । इस्लु प्य के लिये आवश्यक नहीं हो वा सुनाई। । ५) म्हणयार्थप्रतिदकः शब्दः काव्यम् । 'अह लक्षण अनावश्यक बातों के छोडकर पहलेपहले • केवळ रमणीयतः क कोय के लिये आवश्यक मानता है। यही भु बस्तव में ठीक भी है। कोई भी रचना रमय होने से काव्य हो जायगी, चाहे उसमें कोई अन्य ब्रास गुण हो या न हो। रमय उसे कहते हैं | अपने में चिद के लगाने का सामर्थ्य रखता हो । में उदार्थ हैं चित्त को प्रसन्नता अवश्य होगी। परंतु काव्य के लिये केवल 4 महु को रमझौयता आलं नहीं । ऐसा होना चाहिए, जिसमें विज्ञ पुरु झ चिर रममाण हो । यही . गुष्य इल क्षार ने रक्खा हैं, क्योंकि यह केवल रमणीयतः हैं कृतः है, जिसने किस खान मनुष्य ही का प्रयोअन नहीं है, अन् वह पुरूषों को मतलव निश्चलेगा। यदि किसी मनुष्य से हो जाये छ उसने एक बक्ष रुपए ई, तो उसे यह बाक्य रमणीय हो, पर औरों ॐ नहीं । एतावतः इसे रमणीय नहीं कह सकतें। • इसीलि रमयाय का अर्थ होकचरानंददायक होगा, जिसमें