पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/२६८

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प्रौढ़ माध्यमिक-प्रकरण • प्रौढ़ माध्यामिक हिंदी । { १५६१–१८ ) ग्यारहवाँ अध्याय अष्टछाप और बेशुद-संप्रदाय इस समय तक भाषा में कितने ही कुवि हो गए, पर चंड ब- दाई, विद्यापति और कबीरदास को छोड़कर कोई ऐसा नहीं हुआ जो परमोत्तम कवि की जा सके । इँ जल्न कदि से लेकर सेन कधिं तक हिंदी उचक्ष अब्श्य कृरती गई, और जैसे जुल्हन की भाषा संदीय आपा से पृथक् न थी, वैसे ही मैन कवि की भाषा सौर भरा से भी धिक् नहीं समझ पड़ती । उन्नति करते-करते भाशा ने अब जभाषा के सारे बह रूप ग्रह कर लिया था, जो प्रायः ३५० व पर्यत बहुत करके जैसा-का-तैसा रहा और खड़ी बोली की कुछ कविता होद वस्तुतः अद्यावधि वहीं वर्नमान है । इतने दृहत् काल के कदियों की भाषाओं में सामर्थ्यानुसार बहुत बड़ा अंत भी फाया जाता है, पर बह अंतर कवियों की योग्यता के अनुसार है न । कि. म्हात-संबंधी किसी भारी परिवर्तन के कारण । १५६० के लम- भम् ब्रजभाष कुछ-कुछ परिपक्क हो चुकी थी और अच्छा समय था कि शुक्र-संपल कविगह उत्तम कविता बनाते हैं परंतु उत्कृष्ट रचना के लिये सुंर भर ही की आवश्यकता नहीं है, वरन् सहसे छ शक्ति को होनी चाहिए, वह तल्लीनता है। जब तक कवि झोक्काज चौह अयं तक को भूत्व किसी विश्व में विमल न पड़े, तब तक