पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/२६९

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प्रौद माध्यमिक अङ्ग्रह इसकी कविता परमोत्कृष्ट नहीं हो सकती । तल्लीनता प्रायः प्रेम में विशेष पाई जाती है, चाहे वह ईश्वरीय प्रेम हो या कोई अन्य विषय- संबंधी प्रेम । भाग्यवश इसी समय दंग्याल में इतन्य महाप्रभ ने और युक्र-प्रांत में महाप्रभु वल्लभाचार्यजी एवं महात्मा श्रीहितहरिबंश- जी ने कृभक्वि की अनुपम तथा विस्तर्हि स्रोत प्रवाहित किया है। इन तीनों ऋषिर्यों के साथ समस्त उत्तरी भारत में भक्लि की बह अद्भुत समुद्र उमड़ पड़ा, जिसकी तरंगों ने समस्त देश को वित कर दिया । बल्लभाचार्यजी के पुत्र स्वामी बिट्ठलनाथजी भी अपूर्व अझ थे ! इन दोनों ऋषियों ने काव्य का इतना आदर किया कि स्क्यं भी कविता की । स्वामी दक्ष्लभाचार्यजी ने वन-यात्रा-नामक एक हिंदी-अंथ भी बनाया । संवत् १६०० के लगभग स्वामी हरिदास जी ने भी एक वैष्णव-संप्रदाय मलाया और हिंदी का बहुत अच्छा समादर किया। इन पाँचौ महात्माओं के शिष्यवर्ग में उस समय सैकों भक्काशिरोहि हो गए। बिट्ठलनाथजी के पुत्र गोकुञ्जनाथजी ने ६४ श्रीर.२५२ वैय्यदों की वाह-नामक गद्य में जो दो वृहत् ग्रंथ लिखें, उनके देखने से विदित होता है कि ये भङ्गगह सदैव कृष्णा- ब्द में ही निमग्न रहते थे। यही बात उस पद्यमय ग्रंथ के देखने से विदित होती है जो हित संप्रदाय के अन्याय के वर्णनों में लिखी गई थी । यह अप्रकाशित ग्रंथ हमने दरबार छुआपुर में देखा है। इसमें इस मत के प्रायः डेढ़-दो सौ महात्माओं के गर्दनः हैं। अतः यह अच्छा समय था कि कविता की उन्नति होती । इसी समय तीन उस्कृष्ट कवियों का कमब्य-काल प्रारंभ हुआ। महात्म सूरदासुज्डी बल्लभाचार्य महाप्रभु के शिष्य थे। मीराबाई भी भङ्ग- शिरोमहि थे । १५६० संवर् से सूरदासजी की कविताकाल आरंभ : होता हैं और उनकी लेखनी ने १६२० तक पीयूष-दर्षा की । मीरा- बाई एवं श्रीहितहरिवंशजी ने भी लगभग इसी समय में कविता