पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/२७१

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ड अध्यमिक-प्रकरछ कहलाता है ! इस संप्रदाय के अनुयायी बंगाल की ओर बहुत हैं, परंतु एतद्देश में भी पाए जाते हैं। चैतन्य महाप्रभु की प्रगाढ़ मक्कि कर प्रभाव जन-समूह पर बहुत पट्टः । इस संप्रदाय के भी कुछ कवि ५, जिनका नाम इस ग्रंथ में स्थान-स्थान पर मिलेगई । इन कविर्य में तितकिझौदीजी, कुंदनला तथा ललितमाधुरीजी ( कुंदनलाद्ध) धान थे। चैतन्यजी लटियर के ब्राह्मण चे और घलभर्जी दाक्षिणात्य । | चिख-संप्रदाय में श्रीकृष्ण की भक्ति प्रधान हैं । महाप्रभु दत्तभावार्यः इसी संप्रदाय में थे । इन्होंने कृष्ण-सेवा पर विशेष ध्यान दिया । इनके अनुयायी वल्लमीन्य संप्रदायाले कहलाते हैं । ८४ अर्व ३५२ वैष्णवों की वार्ता में इसी संप्रदाय के महान्मा के वर्णन हैं। इस संप्रदाय में बहुत-से झवि हुए हैं, जन्म अष्टछार प्रधान हैं । निद्रार्क संप्रदाय में भी शष्मा , पूजन प्रधान है । महाकवि घनानंदजी इसी संप्रदाय के थे। महम्मा हरिदासजी निंबार्क संप्रदाय में थे । आपने 2ट्टियों- चार शाखा-संभदाय चलाई और विक्कि एवं ब्रह्मचर्य पर किष ध्यान दिया, तथा मूर्तिपूजन का बल कम किया । इनके संप्रदाय में भी बहुत-से कदि और महात्मा हुए हैं, जिनके नाम इस ग्रंथ में स्थान-स्थान पर मिगे । प्रसिद्ध कवि महाराज नागरी- दासजी एवं महंत सीतलदास इसी संप्रदाय में थे। .: मानु-संप्रदाय में नायस-भक्कि' प्रधान है। इसमें ईश्वर के बारह होने एवं यज्ञादिक पर विशेष ध्यान रहा है। महात्मा रामानंदजी इसी संप्रदाय में हुम् । आफ्ने रामभ#ि* पर बहुत अरकान दिया और इस प्रकार समानुज-संपदय की शाखास्वरूप दामाद संप्राय भलाया । गोस्वामी तुलसीदासजी इसी .. संप्रदत्य में थे तथा अयोध्या के महंत आदि प्रायः इसी में हैं। इसमें भी बड़े-बड़े दें हुए हैं। : : .. : *