पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/२७९

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द मध्य-प्रकृरू दिक्कतर भक्कै-कृ ऋगर-रख का दर्शन किया है । ॐ महाशय जाति के शुद्ध थे, पर तो भी आचार्यजी के शिष्य और सहे वैष्णव आने से थे श्रीनाथजी के मंदिर में सर्वप्रधान प्रबंधक नियत हुए । मक बार बिज्ञाथी से चिढ़कर इन्होंने श्रीना में उनकी हृढ बंद कर दी, जिससे गोस्वाञ्ची को अयंत झष्ट हुआ । यह झालं अनुकर महाराजा छीरवल ने कृष्णदासजी को कैद कर दिया । इस पर गोस्वामी बिट्ठलनाथजी ही को इनके अधे पर इतना बद हा कि उन्होंने प्रश्न-जल छोड़ दिया । यह दें बीरबल ने इन्हें कारगार से मुक्क किया । गोस्वामीजी ने फिर भी इन्हें श्रीनाथजी के वंघ पर झहाल रक्खा ! कृष्णदास ने जुगल मन चरित्र, भक्तमाल पर टीका, भ्रमरगीत, और हेमसत्त्वनिरूप-मिक ती ग्रंथ बनाए । इनका काल १६०० के लगभग है। कञ्चता में ये सूरदासजी से लाग-हाट रखते थे ! आपका चैलववंदन नामक अंध खोज में मिला हैं। इनका बानी-नामक एक और ग्रंथ सुन पड़ता है तथा सरोकार में प्रेमरस-रा-ग्रंथ का नाम भी इनके संबंध में दिया है। इस नाम ॐ कई महमा कवि भी थे, सो यह निश्श्चय नहीं होता कि ये सई ग्रंथ इन्हीं के हैं अथवा कुछ औरों के भी । कूष्मादास श्यअहारी इनसे इतर महाशय थे। | इनकी अक्ति अच्छी होती थी और हम इन्हें तोय की श्रेणी में रक्सगे । अपने शुद्ध ब्रजभाष्य ङ्का प्रयोग किया । आपकी रचना निदप, आद-पूर्ण और सोहावनी है। इसमें अनूठेपन की अच्छी बहार हैं। अपकी गणना अष्टछाए में थी और श्रदऋ रत्र ८ वैतु की वार्ता में लिखा हुआ हैं। | ससस योर्बिद करत बिहार । सूरसुता के पुलिन रन्थ महँ फूले कुंद मंदार।