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मिश्रबंधु-विनोंद

विक्रबंधु विनोद | हस्ताथै ताथैइ र नवगति त क्रूज रिन् । कल उदार कृपत्र चूड़ामनिं सुख शारिद कारखा । दरिंभन चैयन लिंगन उचित जुवति जन पायो । अखत कुसुम मुदित नभ नाथक इंद्र निसार अन्ना ; हित हरिबंस सिक राधापति जस बिताने जा ओके । स्वामी हिनहरिबंशी की जीवनयात्रा प्रायः ३६ वर्ष की अवस् में समाप्त हुई । इनके मतानुयार्थियों में सैकड़ों अच्छे कवि और भक्त हो गए हैं। जैसे स्वामी वल्लभाचार्य के भक़ों में सैकड़े कवि होने से वे महाशय हिंदी के परमोएकारक हैं, उसी “ति श्रीहिरिबंशी का भी कविता पर अड़ा भारी ऋण है, क्योंकि इन्होंने स्वयं कवित की और इनके शिष्यों में सैकड़ों कबि हो गए हैं, जिनमें कितने ही सत्कवि थे । इनके बहुत-से शिष्य थे और इनके संप्रदायवाले इन्हें श्रीकृष्ण की भाँति सदैव से मानले सखे आते हैं। योस्वामीजी का ( ६१ ) कृपाराम । | इस झवि के विषय में हम लोगों को प्रायः कुछ भी नहीं काढ़ है। इसके नाम से रारजी ने इसे पश्चिमी वाया माता है । इस झवि में संवत् १५९८ में हित्तरंगिनी-नामक एक रसरीसि का अंध बनाया है। इसमें रसों का विश्य बहुत ही विस्तर-पूर्वक और मनोहर के द्वारा कही गया है । इस कवि की भाषा सुछ अषर है। उसमें मिहित छ : वो बहुत कम हुया है और उसे मनोहर बनाने में काके में पूछा असे किहा है। इस अंक में ३६६ झूद हैं और वे सब यः हे हैं, के के-कर अस्व छंद्रि झहीं- कहाँ मिस । इस कवि ने मानवीय क्राल के दिखाने में बड़ी कृत- कार्कीलाई है। इन्होने लिखा है कि अन्य कवि अथे. छंदों में