पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/२९७

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प्रौढ़ माध्यमिक-प्रकरण | २६१ तुमईबिच श्री अमरितु बसई जानइ सोइ जु कसैटी कलई । का म २ढ़ गुने अउ हुदखे ! करनी साध क्रिए अउ सीखे । अदुइ बाइ इ जो वः : ? वीरउ भन याइ जनावा । जो बडि हेरत जाय हिराई । हो योदइ अमिरितु फल खाई । | नरहशिस्त्र कहउँ लिलार दुइज को जोती : दुइजई जोति कहीं जग ओतं । सद्दस किरन जो सुरज दिए ; देखि लिलार बहउ छि िजाए । र निर बरनउँ दिइ मयंकू ; चंदु कलंकी बड़ निकतंकू । अव चाँद पूनि राहू रास्ता ; वह दिन इह सदा परीक्षा । तिहि लिद्धार पर तिलकुबईम ; दुइज पास मान्दहु धुत्र दी। कनक. पाट जनु बइठेउ राज ; सञई सिंगर अस्त्र उइ साजा । । गरेरइ ईव साथु सब जूझा : अपन झाल ने भी बुझा ।। कोपि र सामुड रन मेला । लन्दन सत्र नः मरइ अकेला । लिङ हाँकि हरिश्चन *इ उटा ; जसइ सिंघ बिदाइ घटा । जह सिर देड़ कोपि तरवारू ; सहँ घोड़े दृईं असवारू । टूट अंध सिर पर निरारी ; माठ जौठ जानु रन' द्वारी । सवइ कटक मिलि गोरइ छैक । ज्ञः सिंध जाइ बहिँ टेका। जेई दिवस उडू सोइ जनु खः । पलट सिंच तेइ ठाँउ न जवा । तुरुन% बोलवईं बोलइ द ; रइ मंचु धी मेन माह । सिंथेजियन नहिं आ इ । सुए छ ऊ घिलि अश्या । काढ्झइ गरजि सिंधु अस इक : सुरज सरदूल पहँ अदा । जावस की मात्रा ठेठ ग्रामीण पूर्वैः हिंदी है, परंतु इसमें इस कवि ने 'उकुति विशेष को भा जाह साहो की, यथार्थका .. पूर्णरूपेण सिद्ध कर दी है। इससे यह विदित होता है कि स्वाभा- क्कि कन्दि झष का मोहताज नहीं और वह किसी भाषा में अन्न-