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मिश्रदंधु-विनोद


समका प्रायः प्राशानी आदर करके हमारा उत्साह ज़ब ही बढ़ाया, हिसके लिये हम उनके परम कृतज्ञ हैं, तो भी हमने यह उचित नहीं समझा कि स्वर्गीय बाबू माणिक्यचंद्र जैन के उत्तराधिकारियों के पास उसकी सैकड़ों प्रतियाँ वर्तमान रहते हुए भी हम ग्रंथ का द्वितीय संस्करण कहीं अन्यत्र से प्रकाशित करा दें, यपि अपने प्राचीन नियम के अनुसार हमने जैनमी अथवा मंडली से बिना एक पैसा भी लिए हुए ही उसके प्रथम संस्करण के निकालने का अधिकार उन्हें दे दिया था, जैसे कि अब द्वितीय संस्करण के प्रकाशित करने का अधिकार हमने गंगा-पुस्तकमाला के परमोसाही एवं हिंद-प्रेमी संचालक, तथा प्रसिद्ध मासिक पत्रिका माधुरी के संपादक, पंडित दुलारेकालजी भार्गव को इस बार उसी भाँति दे रक्खा है । अस्तु, इन्हीं सब कारणों से १२ वर्ष तक इस ग्रंथ का द्वितीय संस्खरण प्रकाशित न हो सका जिसके लिये हमारे पास अनेक उपालंभ तक आए । नभी गत अप्रैल मास में हमारे प्राचीन मित्र, विहार सरकार के फाइनांस मेम्बर माननीय मिस्टर ... सचिदानंदसिंह ने हमें (श्यामबिहारी मिश्र को) लिखा कि वे दो वर्ष से अनेक स्थानों को लिखने पर भी "मिश्रबंधु-विनोद" की एक प्रति कहीं से न पा सके। हर्ष का विषय है कि अब तेरहवें वर्ष में इस ग्रंथ के द्वितीय संस्करण के प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। इसकी मांग देखते हुए जान तो यही पड़ता है कि काचित् एक ही दो साल के भीतर तृतीय संस्करण निकालने की प्राकस्थता हो जाय, पर यदि इसके लेखकों की अयोग्यता का विचार भरके हिंदी के विद्वान् इससे मुह मोड़ लें तो बात ही दूसरी है। पिछले संस्करण में १९९३ पृष्ठों के तीन भागों में यह ग्रंथ इया था जिस में ३०१७ लेखकों के विषय में कुछ लिखा गया था। इस बार अनेक अन्य क्षेत्रकों का पता चला है एवं कुछ अन्य नवीन