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मिश्रबंधु-विनोंद

. मिश्रबंधु-विनोद संवत्, इतिश्री अदि कुछ भी नहीं है और मुंशी देवीप्रसादजी है। नी मीरा के तीन ही ग्रंथ माने हैं। इनके पति कुमार जजज़ी ने पिता के सामने ही परलोक-वासी हो गए थे। सुना जाता है कि जिस ससस मीराबाई की भक्किं के कारण उनके स्वजन रुष्ट थे उस समय मीजी ने गोस्वामी तुलसीदासजी से अनुमति माँधी यो ? इस पूर :बीज में यह उत्तर भेजा था- हिन यि नै म बैदेही ; ते छाँए केन्टि बैरः सन्स यद्यपि परम सनेही । । तज्य पिता ब्रह्माद विभीन बंधु भरत मद्दतारी । । बाल गुरु तज्यौ कंत ब्रजवनित भे सब मंगलकारी । । कहते हैं कि इस के पीछे भीरबाई ने अर भी स्वतंत्र आचरड ग्रहण किया, परंतु यह किंवदंती अशुद्ध जान पड़ती है, क्रैकिं मीराबाई का देहांत द्वारिकाजी में संवत् १६०३ में हुआ था और तुलसीदासजी कः संवत् १६८० में, स गोस्वामी को चाहे जितना दीर्घजवी मानें, किंतु गोस्वामीजी झा और मराज की कविता का काद्ध किसी समय में एक नहीं हो सकता । गोस्वामीजी का उपर्युक्त पद मीराबाई की जीवन-संबंधी घटनाओं से मिलता-जुलता है । अतः लोगों ने इसके सहारे यई कथा पढ़ ली होगीं । पहले बहुत को मत था %ि मरःबाई राणा कुंभकरण की स्त्री थीं और बाईजी की जन्म-कल सं० १४७५ का लोग मानते थे, परंतु जोधपुर के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी ने सीराबाई के बाबत उपर्युक बाठों का पता लगाया है, जो अच्छे सर्वसम्मत भी हैं ।, छमाबाला वर्शन श्रीमतः पुतीबेलेंट के लेख के आधार पर लिखा गया है। साधारह हिंदूमाज पर कुछ पराणिक स्त्रियों को छोड़कर और भारतवर्ष की किसी रूसी का प्रसाई मीराबाई के बराबर नहीं पढ़ा है । इस महिला-स्त्र के अपूर्व मुग्ध भरतवासियों ने मुक्ल कंठ से छ।