पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३०१

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प्रौढ़ माध्यसि अङ्कर ३६३ किंवा है । भक्तशिरमा नभदास एवं ध्रुवद्धार तथा व्याज, भगवत सिक्क मलूकदास, रजः नारीदास अगद सभी महाशय ने बड़े श्रदर ॐ साथ मुझे में मीरबाई का नाम लिखा है और उनके जीवनचरित्र का वर्णन किया है। जैसा इस रत्व असुर हिंद- समाज्ञ पर पड़ा वैसी ही इसकी प्रगाढ़ क़ि भी थी । कछ छोरों का विचार है कि मीराबाई के वास्तविक कुमार अवस्था में ही इनके पति का परळकवास हो गया था और इनके पति के स्वजनों ने इनके यहँ साधु की भीड़ जुदत देख लोकापवाद के भय से इन्हें मारन का प्रयल क्रिया और अन्य कष्ट दिए, जिस पर ये वृंदावन चल्ली गई और फिर द्वारिकाजी को इनके बुलाने को राजी की ओर से ब्राह्मल्ल भेजे गए, जिन्होंने इनके यहाँ जाकर धरना दिया। उसी स्मथ इनका शरीरपात हो गया । रणछेज के मंदिर के साथ। मराबाई की भी पूजा होती हैं । जो हो, मराबाई अच्छल भक्लि की थाप कर गई है। वह कलयुग में देदी होकर बर्म थी । | इनकी कविता में श्रद्ध अझ का प्रवाह बहता है । अापकी भाषा राजपृहार्न-मश्रित ब्रजनक है और दई सर्वतोभावेन सराह- नीय हैं । हम इनके कुछ पद नन्हें उद्धृत करते हैं- बस मेरे नैनन में दलाल ; मोहनि मूरद सारे सूरति नैन बने रसाल ।। । मोर मुकुट मदन कुंडज्ञ अज तेज दिए भारू । अक्षर सुधारल मुरली जाते. उर बैजंती माल । • छु मैटिका झट नाद सोभित नूपुर शब्द कहें ; मीरा प्रभु संतन सुखदाई: *बल गफल ।।. .. भजि मन चरन कमल अबिंदासी १ (क) जेदह दीले धरनि आइन छिद क्षेतद् सत्र उठि जास. । ...।