पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३०३

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प्रौढ़ माध्यसिछअंक बहुत-से शिष्य थे । ये महाशय वैष्णवों में बड़े प्रधान पूरे ऋषि समझे जाते हैं। इन्होंने दानी, साधारस सिद्धांत, रस के पद, पद, भरथरी-वैराग्य और हरिदासजु को १६०७ ग्रंथ-नामक ग्रंथ रचे हैं। इन बानी हमने छत्रपूर में देल्ली और इनके शेष ग्रंथ खोज सन् १६००, १६०२ व १९०५ में लिखे हैं। इन्होंने भरथरी-वैराग्य अरि पढे ३६१७ में बनाए ! तृ०० लो० में इन्दका एक. ग्रंथ केहिमाल-नामक मिला है ? अश्य बहुत-से पद हमने इधर-उधर संग्रह में भी देखे हैं। अापकी भा में वहत स्थानों में संस्कृत बहुत मिल जाती थी, जिससे वह कठिन हो गई है । इनकें पद बड़े भनोहर और कृष्णभक्ति से भरे हैं। हम इन्हें तोप की श्रेणी में समझते हैं । वृह वड़े गायनाचार्य थे और इन्होंने तानसेन को भी गनर पुढ़ाया । । उदाहरण--- गही मन सब उस को रस सार । लोक घेवु कुल करमै तजिए भजिए नित्य विहार ।। गृह कामिनि कंचन धन त्यागौ सुमिरौ श्याम उदार । गहि हरिदास रीति संतन की गादी को अधिकार । स्वामी हरिदासजी के प्रधान शिष्य इनके मामा बिंटुल विपुल थे। इनकी शिष्य-परंपरा में बिट्टल बिपुल, बिहारनिदास, ३ नागरीदार. १ प्रसिद्ध महाराज मिलाकर ), सरसदार, नवेलदास, नरहरिदास, चौबे ललितकिशोरी, मौनीदाह आदि बड़े-बड़े महात्मा और सुकवि थे । स्वामी हरिदासजी प्रथम वृंदावन में रहे और फिर निधुबन में । गानुविद्यर में ये महाराज यड़े ही निपुण थे । इनकी विरक्ति की भी बड़ी प्रशंसा सुनने में आती है और ग्रंशों में लिखी है। इन्होंने ब्रह्मचर्य का अच्छा सम्मान किया और प्रतिमा-पूजन की महिम कम की । आपके शुद्ध चरित्रों एवं कविता-प्रेम का प्रभाव