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मिश्रबंधु-विनोंद

सिंश्रबंधु-विनोद अवकत च बेसन्सल के ठ-सी रहीं 'ॐ न ले धिक हैं। तुल्सी मनरंजन अजित अंजन हैन सु संजन जातिक से । सजन ससि में सम सरल उभे नवे मील सरोह से किसे है। | कविताली ए मोर के जो. जर सीस सहैं । लसें झूल की मुंड मा बिमोहें। भलेर कुंकुम भस्म के लेय कीने ।

  • देव को नादं हि लीने ।

| ओनदीका ६ = ३६३१) बंद गुरु-पद-पदुम-परगा । सुरुच सुबह सरस अनुमा । अमिय सूरि मै चूरन दारू ; समन सकल वरुज परिवारू । सुकृत संभु वन विमल बिभूर्ती : मंजुल संग्रह मोद प्रसूती । झन मन भजु मुकुर से हरी । के तिलक बुर गन ब करनी । श्रीगुरु पद रज मंजुल अंजन : नै अमिय दृग दोग्य विभंजन। तेहि कर विमल विरार दिलोचन; बरः रामचरित भवमोचन ।। । . ० ३० मा , | कहहु ताद केहि. भौति कोड बड़ाई तासु ; ... " | राम ज़रखन तुम सहन सरिस सुवन सुचि अस्तु ।। सब प्रकार भूपति बड़भागी ; इदि बियाद काय तेहि लाई । . यह सुनि समुक्ति सोच रहरहू सर धीरे राज जयसु रहू । राय राज पद तुम हूँ दीन्हा । पिता बचन फुर चाहिय कीन्हा । नजे राम जेहि बचनहि लागी : तनु घरिहरेउ राम बिरगी । नहिं वचन प्रिय नहिं श्रेय ना : ऋडु तात पिलु बचन अमान्दा । कर सीस धरि भूप रजाई ! यह तुम हैं सब भाँति अत्याई । सुरमपितु अज्ञः रखी : सर मालु ल स हारीं । तनै जाति बन दयङ पितु अज्ञा असे अजस न भयऊ।