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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोद मूलन ही को जहाँ अधोगति केसब गाई । होम हुतासन धूम नगर एकै मलिनाई। दुरगति दुरगन ही जु कुटिल गति सरितन ही मैं : श्रीफल को अभिलाख प्रकट कवि-कुल के जी मैं। अति चंचल जहँ बलदल विधवा बनी न नारि । मन मोझो ऋषिराज को अदभुत नगर निहारि। सोहत मंचन की अवली गज-दंतमई छवि उज्जल छाई। ईस मनी बसुधा में सुधार सुधाघर-मंडल मंद्धि जुन्हाई । ता महँ केसबदास बिराजत राजकुमार सबै सुखदाई। .. देवन सौ मिलि देवसभा मनु सीय-स्वयंबर देखन आई। बैटभ सो नरकासुर सो पल मैं मधुसो मुर सो बेहि मायोः .. लोक चतुर्दल रच्छक केसव पूरन बेद-पुरान विचात्यो । श्रीकमला कुछ कुंकुम मंडित पंडित वेद पुरान उचाल्यो .. सो कन माँगन को बलि पै करतारहु ने करतार पसायो । राधव की चतुरंग घम् इय को गनै खत्तव राज-समाजनि: सूर तुरंगन के अरुकै पद तुंग पतरकनि को पट सानि ।। यूटि परे तिनते मुकुता धरनी-उपमा बरनी कविराजनि ; . बिंदु किधी नव फेननि सो किंधों राजसिरी सवै मंगलकाजनि। . .... हरि कर मंडन सकल दुख-खंडन , . मुकुर महिमंडल को कहत अखंड मति । परम प्रकास तिमि पीयुष निवास , परिपूरन टजास केसौदास भू अकास गति। ... मदन ऋदन कैसे श्री के सदन जेहि , . ... ... ': . - सोर सुचादर दिनेसन के मीत प्रति : . सीताजू के मुख सुधमा को उपमा को कहि ..... कोमल न कमल अमल न जानि पनि ।