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मिश्रबंधु-विनोंद

३७८ मिश्रबंधुदिनोद विद्यापति को छोड़कर यह भारी सात-आठ सौ साल का समष झविदाबहुत्य और साहित्य-सौंदर्यं दोनों के वास्ते थाल- कादं समझना चाहिए ! साहित्य की उत्तमता सर्वतोभावन उमंग और उत्सुई आदि पर निर्भर है। यहीं गुम साहित्य-देवी की चिंत्ता- छणि मूर्ति को और भी मनोहर बना सकते हैं और उसकी प्रतिभा झो इंदाप्यमान रहे हैं। परंतु ये गुण साधारह व्यक्तिर्यों में न पाए जाते और इसी से उनकी चिंता में बह टर्य नहीं आ सकता ज्वे दबस चित्र को अपनी दुक खच ले और उसमें उस संजीची शॐि का संचार नहीं होता जो दिल ऋः मुरझाई हुई झक्त को विकसित कर दे । ये गुण प्रधानता तल्लीनता से प्राप्त होते हैं, चाहे वह इंदर-संबंधी हरे या किसी और विषय पर । | चंद्र बरदाई पृथ्वीराज द्वारा सम्मानित होने एवं अन्य कारणों से इनके गुसे पर इतना मुग्ध थे ॐि वह चैहादराज की इस्ः मुक्त कंठ में करने के बरवस उत्साहित होनें थे और इनकी बहुत- सी अश्लों से सहमत भी थे । उसके सुबिशी अनुभव और भायः ॐ अबढ़ अधिकार ने उससे कविस्द-शक्कि को और भी स्फूर्ति दे दी थी। इन्हीं कारणों से वह उत्तम कविता रच सके, परंतु तब तक और कोई कवि तादृश तभी आप्त करने में सर्थ नहीं हुअर ३ महारा गोरखनाथ की शिंप्यूमंडली का रुझान बता क्की शोर महीं हुआ है। महर्थि रामानंद दाक्षिार ब्राह्मण थे, सो हिंद-भाष उर उनके विशेष अधिकार होने की आशः भी नहीं की जा सक्ती हे । उनके दूरस्थ होने के झारख उत्तरी भारत पर कुछ समय त उनकी भलै कर ब- ऋतुमा प्रभाव नहीं पड़ा। महात्मा करदास की रचनाएँ अटेर सुन्ने आधिक्य में अश्य प्रशंसनीय हैं, परंतु फिर भी उनक्की - ड में न्हिीं कारणों से साहित्य की सिक्का ने जम का। इस भरू श्मा ॐ शिष्यचं की तल्लीनसा र बले कविता ओर नहीं है।