पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३१५

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आइ ॐ साम्य से श्रीमहात्मा दल्लभाचार्य, श्रीचैतन्य महा- इ, द्विदिशजः, इरिदासज इदि ने उत्तरी भारत में भारगिनी के प्रांड धद ने इस बैंक में प्रवाहित किया कि सारा देश उसके अकथनीय आनंद में शुकदम, निमग्न हो गया । इनके अनुयायियः ॐ भक्भिाव तहत को मात्रा का अच्छा विकास हु । तल्लीन एक भारी बल है, जिसके सम्मुख कोई ६ वस्तु असंभव नहीं है । इसी के वश भेजने अपनी प्रेमिका एर पतं की भंति निवड हो जाते हैं, इस के इश योञ्जन कंचन के एत्थर के देखें की भाँति सरकार ईश्वरानंद में निमग्न रहते हैं और कठिन :-कठिन तपस्या में भी परमानंद का अनुभव करते हैं और इसी के वश शुरवीर रखछेत्र में तिल-तिळ अंग का जाने पार भी मुँह न मॉड्र सहर्ष स्वयात्रा करते हैं। इन महानु- आवाजें इस अरोध बल के साहित्य की ओर सतरा दिया । क्या था ? इसने कृष्णु-भाई के स्थ पूर्छ विकास कर मा-भेद्धार । ॐ सोहः एवं प्रचुर कविता से भर दियः । .. इन महानुदा की भसिद्धी-संबंध होने के कारण इन संग्नयों के कवियों में ऋगर विथक्क केवः ईः विशैयतयः अच- लिल हुई, जिलकें कर इ-काव्य के इचिंग का रुझान यार ही की ओर हो गया और इस रस में हमारी कुता पर ऐसा अधिकार जमा लिया कि श्रर रस मुँह ताकतें ही रह गए। ॐ संदख-चार तथा पढे ३ सहरमा ब्रोच विशेष प्रय, नादिर श्र; दिरक थे, अतः इन रस में मक्त को प्राध्झान्य देख इता है, परंतु अगे इलकर दिन कविथ द्वार भक्ति को ढियब हो गया और भाषा-साहित्य में मकिन श्र-रस के ह या । इसमें इतनी शनि अवश्य हुईं, परंतु कुल मिलाकर रह-रहित्य को लाभ ही हुई है बदिं चैवाच महामहे