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मिश्रबंधु-विनोंद

२८३ मिश्रवधु-वनोद गरे लहराई हैं ! स्वामी हरिदास ने संस्कृत-मिश्रित भी चिंता की और अचान सिंह ने नखशिख अच्छा कहा । परमप्रसिद्ध झाक्क । तानसेन की चिंता से जान पड़ता है कि ये कृष्ण भक्क थे । इनके मुसलमान होइ इनकी रचना से नहीं प्रकट होता है अस्यि मान- चश्यं बलू अधिरे और सदारंग ही तानसेन के समझालिक थे । इन स नाड-शत्रूने पर प्रगढ़ धक्कार झा । कहते हैं कि बैजू बावरे - मैच के हृदयनशास्त्र के गुरू थे । स्वालियरष्दाले क्षेत्र मुहम्मद हुस्स ली तानसेन ॐ नमाने में गुरु थे । महाराज नरसैयौं ने पंजाबी-महें भाषा में भी इन्दना की है। कबिन का समग्दर बैध्याव-संप्रदायों में इतना था कि स्वयं बल्लभाचार्वजः, हितजी, हरिदासजी ना बिट्ट- 'दासजी स्वामी ने भी कविता की। संपर्युक्ल पद-निर्मायने में सब कुकी . समय ॐ पूर्वार्द्ध में बंद थे, पर अधिश थे। इसी प्रकार अन्य विषयों के नेवाळे भी पूर्वार्द्ध में हुए हैं, पर विशेषतया उल स्थिढेि उत्तरार्द्ध ही में है। वैष्व-संप्रदायवाली के ही प्रेम के काम. श्रत में ऋणलीद्धा और रास की चाल पट्टी है और इस समय से रामलीला आदि होने लगी है। । अझबर शाह के यहाँ हिंदी-न्य का विशेष समार हुआ, और उनके यहाँ उनके अतिरिक्त टोडरमल, ग्रीश्यल, मानसिंह, रहीम,

  • दंबई, नरहरि, फैज्ञी, अबुझyछ अदि अच्छे अच्छे कवि थे । इनके

आरेक अन्य कविगण भी बह जादे और समादर पाते थे । इल राय ने होलपुर बसाने ने भूमि अङ्बर से पाई श्री। केशव्यास ३ । कविता ही के द्वारा ऑछा-नरेश पर गुळ ओटि मनः शाही दरबार में माफ करा लिया था । अशिराय वेश्या को बुलाने * ऋच्छः कवर उसके दर्ब पुर्व साहित्य दोनों ही कार में हुई । एक बार सोनमेन के साथ वेष क्वञ्चर अकदर स्वामी हुँ । दास कैद करने गए थे। कुँअन्ददास के उन्होंने सीकरी युञ्जयः ।