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२८८
मिश्रबंधु-विनोंद

२८८ .मिश्रबंधु-विनोद ( ६७ ) छील कवि ने संक्त् ११३७५ में पंचसहेली:नामक इक पुस्तक अमाई, जिसमें पाँच अयाश्चों की विरह वेदना या अशुभ हुआ है और फिर उनके संयोग को भी कथन हैं। इनकी छ राजवृतानो पुराने ढरें की हैं और इनकी कविता में छंदोमय । हैं। इनकी रचना से जान पड़ता है कि ये मारवाड़ को सफ़ के रहनेवाले थे, क्योंकि इन्होंने साब्लाबों इत्यादि का वन व प्रेको से किया हैं । कविता की दृष्टि से इनकी गन्ना हीन भैही में ई हो सकती है। उदाहरवा-- देख्या र सोहावना अधिक सुरंदा थानु । भाईं बँदेरी परगटा अनु सुरलोक समानु।। आईसाईं मंदिर सित्ति खिना सोने हहीया है। ' दीहल तिन की ऊपमा कहत न आवै छैहे ।। काई-अई सरवर पेषिई सूमर भरे निंबोण ; ई-ढाई कुवा बावरी सहइ फटिक सिवा । पंद्रह से पचहत्तरे पूनम फागुख मास । पंसहेली क्ई कवि चौहत्व परगाह है नाम-१७ } गौरवदास जैन ! ग्रंथ-यशोधर चरित्र ।। रक्नाद्ध -११०। विदर-फफ मन्दिास है.. नाम-{ } कुकुरसी ।। प्रथ-ऋयचरित्र ।। रक्ख –१६८० । । विवाह---अह के पुत्र हैं । । इस्रौ वा सहु कोई भरम मूह धन संध्यो ।