पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३२९

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ड़ माध्यमिक विचार से सुदामा का संकोच और दरिद्रता के कष्ट से स्त्री को हुई इस ग्रंथ के डीव हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी सुदासा में कुछ है देकर उमकी स्त्री को ही धन दिया, क्योंकि दही धन वाहतो थी, न छि स्वये सुदामा, बो केवल शुद्ध मित्रता के उत्सुक थे । हम इस अंडे की गणना पद्माकर की श्रेणी में करते हैं। उदाहरणार्थ इन्के कुछ छुद नीचे झिते हैं--- कौं सवाँ जुरतो भई पेट तौ चाहती ना दधि-दूध मठौत ; संस्त बितत भयों सिसियादि । हठती औ तुम्हें न इौती ॐ ॐ अनती न हितू हरि . तुम्है माहेक द्वारिकै पेलि पढौती । या घरे ते कबहूँ न टरे पिच टूटो वा अरु फूटी कटौसी । प्रीति मैं चूक नहीं उनके उठि मधे मिलॆ हरि ॐठ लयकै । द्वार अए कछु हैं हैं हैं वै द्वारिकानायक हैं सब छायकै । तन कति गए पन है अब त पहुँचौ छिरधाएन यकै ; जीवन केतिक के लिये हरि ॐ अव होहुँ कनावद जायकै । मैं तो है नीकी सुनु मौस आत ही की यह दि मित्रई की नित अछि सरसोइए । चित के मिले हैं वित्त चाहिए परस्पर, जेइर ऊ मौत के तौ अपने अमाइए । ३ हैं सड़को औरि बैठ समान छूप, | तहाँ यह रूप आइ हो सकुचाइए। .. दुख सुखै अब व इनत दिन मरे भूहि, ।

. बिपद परे हैं दुरि मौत के न आए ।

सरस इ ई गई तन मैं प्रभु जाने के यहि दसै केहि शाम । धोती फटीसी द्धदर दुपटी अरु दा ४पनिह की नई सम्मा।। द्वार खो द्विज दुबैज: एक हो चुके हों इसुद्धः अभिराम ।। पृछः दीनदयाल ः धाम तावत आप कम सुधमा ।