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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधचिनौद तुम्हें ॐ ह्राद्ध बाँइवा सो भए केदक जीत्व गर्दै छ र ? हाय महास्न पाए सखा तुम आए इतै न कितै दिन सोए । दैछि सुदामु कि दीन दश करुना झरिकै कुनानिधि रोम् । पुग्न पररात को हाथ ऋयों नहिं नैनन के जच्च सो पग धोए । कॉषि उठी कमला क्यि सचिव महें कहा हरि ॐ ऋतु हो । सिद्धि छुपैं, नव निद्धि चर्दै, असु ऋद्धि कैपें यह बाँसन धोये ।। सर परखें। सुरलोकहु में जब दूसरी बार लियो भरि झाको । नैरु नै बलें अनि मौईि कुबेर सात ही चावर चौको।। . रूढी वैसरि लेत ही रुकुसिन पकरी बाँह । झहर ऐसी भई संपत्ति की अनचाह । कभी छद में यह न मिलाए । ' करत सुदामा पु सस त सुदामा आधु । . इन्क्कर ए तरी अंथ विचारसाळt सुन पड़ता है पर देखने में ही अश्या ! नाम-- ६३ } हरराज । अर्थ-डोला सारू मानी । पक्षी । खोज १६०० } रचनाकाल-१६०७ ।। विस-यादों के श्राश्रित थे। { ७३ } श्रीसँधी महात्मः हितहरिवंशर्जी के शिष्य थे। हित- इरिक्शज अ अन्म संवा १५३० में हुआ था और ११६१ में ३ वृंदावन चले गए थे । वजी का जन्म-काल संवत् १६७० के जगभराअन पड़ता हैं । इस्की क्वचिवा-काद्ध संवत् '१६६७, समुन्टा चश् । इन्होंने ‘वानी'-नामक ग्रंथ रचा, सिमें अपने मुकुरु का यश गान क्रिया । अन्य मत में ये महाशथ बड़े अहारमा थे, परंतु कविता की इष्टि से हमें इन्हें साधारण श्रेणी में रक्को । इक्की प्रथा छठपूर में हैं।